लेखक – कपिल मोहन चौधरी, (पुरुष अधिकार कार्यकर्ता)
स्त्री-पुरुष के बीच विवाह भी एक पवित्र बंधन है, जिसे लगभग विश्व के सभी धर्म अलग-अलग नाम व तरीके से मान्यता देते हैं| जानवरों में विवाह नाम की व्यवस्था नहीं होती, वहां जो बलशाली है वह झुण्ड का दबंग सरदार होता है और मादाओं का भोग करता है, इनके बीच वर्चस्व की जंग हमेशा चलती रहती है| कुछ जानवरों में अनुशासन व परिवार नाम की भी व्यवस्था होती है| किन्तु मानव सभ्यता में, परिवार व्यवस्था के साथ-साथ रिश्तों का नाम व संबंधों की एक सीमा भी तय की गई है| सबसे अधिक विकसित मानव सभ्यता वही है – जहाँ रिश्तों में मर्यादा अधिक है, जैसे पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा, बुआ आदि रिश्तों का अनुशानात्मक तरीके से पालन होता है| यही कारण है कि हर नर-नारी को एक उम्र के बाद पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते में बांधे जाने की व्यवस्था दी गई है ताकि जानवरों की तरह अराजकता न फैले व पति-पत्नी से उत्पन्न संतान की जिम्मेदारी तय हो सके और वह संतान, एक अच्छा नागरिक बनकर इस सामाजिक व्यवस्था में अपना स्थान बना सके | विवाह एक सफल संस्था/व्यवस्था है| किन्तु इस व्यवस्था से वह लोग असंतुष्ट हैं जो या तो भोगी किस्म के हैं या ताकतवर हैं| इसमें बहुत से पुरुष शामिल हैं जो परिवार या समाज में बहु-स्त्री का भोग करना चाहते है, साथ ही वह स्त्रियाँ भी हैं जो बहु-पुरुष सम्बन्ध चाहती हैं| यही वह वर्ग है जो चाहता है कि परिवार नाम की व्यवस्था कमजोर हो, लेकिन परिवार और विवाह नाम की मजबूत व्यवस्था के अंदर यह संभव नहीं है| इसके लिए स्त्री को, परिवार की लक्ष्मण रेखा से बाहर निकालने के लिए कुचक्र रचा जाने लगा और स्त्रियों को बताया जाने लगा कि परिवार एक कैदखाना है| अब इस पारिवारिक व्यवस्था के अंदर की असंतुष्ट स्त्रियों को, जिम्मेदारी की बजाय शौचालय और तथाकथित घरेलू हिंसा जैसी बातों पर आज़ादी का पाठ पढ़ाया जाने लगा| यही वह कूटनीति थी जिसकी वजह से अब स्त्री घर से बाहर आज़ादी या बगावत के नाम पर निकल रही हैं| नतीजा यह रहा कि अब शादी की बजाय फिर से जानवरों की तरह सम्बन्ध बनाये जाने लगे हैं| इस बगावत को सत्ता के शीर्ष पर बैठे भोगियों द्वारा संरक्षण दिया जाने लगा| जितना अपराधी महिलाओं का शोषण नहीं करते, उससे कहीं ज्यादा महिला का शोषण, उसको संरक्षण देने वाले करते हैं| शास्त्रों में विवाह और परिवार व्यवस्था की जिम्मेदारी पुरुषों पर डाली गई और एक व्यवस्था के तहत स्त्री को घर के काम व बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी दी गई, जबकि पुरुष को बाहर से कमाकर घर की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी दी गई| जिसका स्त्री वर्ग को फायदा भी मिला| अन्यथा जानवरों में मादा “माय बॉडी माय च्वाइस” के कारण बच्चे तो पैदा करती थीं, लेकिन प्रसव के पहले व तुरंत बाद सिर्फ उसी माँ को बच्चों की परवरिश के लिए भोजन व सुरक्षा दोनों ही व्यवस्था अकेले ही देखना पड़ता था| साथ ही झुण्ड के सरदार के आगे उनकी “माय बौडी माय चॉइस” भी नहीं चलती है|
चालाक, शक्तिशाली व भोगी किस्म के पुरुष, स्त्री को भोगना तो चाहते हैं किन्तु जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते है, इसके लिए भी उन्होंने परिवार व्यवस्था को ही हथियार बनाया| स्त्री आज़ादी के नाम पर, ससुराल की प्रताड़ना के नाम पर, गुजारा-भत्ता व एलोमनी नाम की व्यवस्था बना दी गई, जो इन परिवार-द्रोहियों के लिए अल्लादीन का चिराग साबित हुई| खर्चा तो वह पुरुष उठाएगा जिसने विवाह-व्यवस्था पर विश्वास किया जबकि फायदा उठाने के लिए पुलिस व न्यायपालिका के भ्रष्ट लोग इस बहती गंगा में डुबकी लगाकर नहाते नज़र आते हैं| चूँकि परिवार-द्रोही स्त्री-पुरुष को समाज में सम्मान नहीं मिलता था व इसे नाजायज़ माना जाता था, इसलिए न्यायपलिका ने पर-पुरुष व पर-स्त्री सम्बन्ध को “यौन स्वछंदता” के नाम पर मान्यता दे दी लेकिन भरणपोषण की जिम्मेदारी पति पर ही डाली गई| तलाक के बाद भी पत्नी के भरण-पोषण की जिम्मेदारी पति पर ही डाली गई| पर-पुरुष से उत्पन्न संतान की की जिम्मेदारी भी उस बच्चे के पिता की बजाय, पति पर ही डाली जाती है| कुल मिलाकर “परिवार” नाम की संस्था को अपनाने वाले पुरुष को दंड दिया गया और जो स्वतंत्रता के नाम पर यौन-स्वछंदता को बढ़ावा दिया गया| महिला को दहेज़-कानून, गुजारा-भत्ता, एलोमनी, सम्पत्ति का “वरदान” दिया गया या यूँ कहे कि “वर” से जबरन “दान” कराया जा रहा है| ससुराल में बहू बनकर जिम्मेदारी निभाने की बजाय वापस मायके जाकर, स्वतंत्र व परजीवी बनने की व्यवस्था को बल दिया जा रहा है, जो कि परिवार टूटने का मुख्य कारण बना| दहेज़ कानून जो 1% भी स्त्री सुरक्षा नहीं करता बल्कि 99% से ज्यादा पति-परिवार की प्रताड़ना के काम आता है| इससे हम सबको सबक लेना चाहिए| हम सभी को छात्र-जीवन में इतिहास पढाया जाता था, ताकि, बचपन से ही हम, इतिहास की घटनाओं से सबक लेकर एक स्वच्छ समाज का निर्माण करें|
किन्तु अब इतिहास को भी तोड़-मरोड़कर स्त्री-शोषक बताया जा रहा है| सदियों से स्त्री को दहेज़ के नाम पर जलाये जाने की बात जबरन बताई जा रही है, सदियों से कन्या-भ्रूण हत्या होते आने का प्रपंच रचा जा रहा है जबकि भ्रूण-लिंग की जांच की मशीन 90 के दशक से बाद ही आई है और उसके बाद से बालिका जन्मदर में बढ़ोत्तरी ही दर्ज हुई है| कन्या भ्रूण से ज्यादा बालक भ्रूण पाए जाये हैं लेकिन यह चर्चा व सरकारी खर्चा उगाही का विषय नहीं बनते| इतिहास में कैकई, मंथरा, शूर्पनखा, ताड़का, पूतना जैसी स्त्रियाँ भी थी लेकिन आज के भारतीय कानून में ये सभी अबला हैं| भारत के इतिहास में रामायण व महाभारत दो बड़े युद्ध दर्ज हुए जिसकी मूल जड़, पत्नी के परिवार या पत्नी की जिद, कि “उसका पुत्र ही राजा बनेगा” , थी; फिर चाहे वह कैकई हो या महाभारत में राजा शांतनु की पत्नी सत्यवती, जिसकी वजह से भीष्म को, जायज व योग्य वारिस होते हुए भी, सिंहासन से दूर रहना पड़ा| इससे पहले गंगा ने सात पुत्रों को राजा शांतनु के आँखों के सामने नदी में डुबाकर मारा, किन्तु राजा शांतनु एक राजा होते हुए भी अपने पुत्रों की मौत की वजह नहीं पूछ पा रहे थे| द्रोपदी चीरहरण भी उसी पारिवारिक नफरत का हिस्सा बना जहाँ ‘अंधे का पुत्र अँधा” बोलकर रिश्तों की सीमा लांघी गई| राजा दशरथ भी एक सशक्त राजा होते हुए कैकई के स्त्री हठधर्म के आगे विवश थे और निरपराध राम को वन भेजने पर मजबूर थे| कहीं दहेज प्रताड़ना की किसी कहानी का उल्लेख नहीं दिखाई देता जबकि गरीब स्त्री को रानी बनाने के कई उदाहरण मौजूद हैं| यही है तथाकथित स्त्री प्रताड़ना के इतिहास की संक्षिप्त झलक|
दहेज कानून और IPC498a कानून के दुरूपयोग को देखते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर देशभर की तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ द्वारा भी एक “परिवार कल्याण समिति” की स्थापना की गई| जिसमे 8 महीने में लगभग 622 केस आये थे| उन 622 में से 500 विवाद ऐसे थे जिनमे दहेज मांगने के आरोप थे| किन्तु जब समिति के समक्ष सुनवाई हुई तो इन 500 दहेज़ वाले मामलों में से एक भी मामला दहेज़ की मांग से सम्बंधित न होकर, पति-पत्नी और सास-बहू आदि के आपसी घरेलू कहासुनी के थे| इससे पहले भी लखनऊ बेंच दहेज़ के 99% तक मामले झूठे होने की बात कह चुकी है| माननीय सुप्रीम कोर्ट भी इसे 98% तक झूठा कह चुका है| माननीय सुप्रीम कोर्ट, सन 2005 में ही, दहेज कानून को “क़ानूनी आतंकवाद” तक कह चुका है| इतिहास से सबक लेने की बजाय अब “मैरिटल-रेप” अर्थात “वैवाहिक बलात्कार” कानून की तैयारी चल रही है जिसमे स्त्री के मात्र बयान पर ही पति को बलात्कारी घोषित व सिद्ध कर दिया जायेगा| कोई गवाह या साक्ष्य की गुंजाइश तक नहीं होगी| अर्थात जो 98% से 100% तक दहेज़ के झूठे आरोप लगाती थीं अब उनको एक अचूक ब्रम्हास्त्र मिल जायेगा| परिवार नाम की संस्था का अंतिम सस्कार लगभग तय है| विवाह संस्था तो मरणासन्न की स्थिति में तभी से आ गई थी जब पत्नी को पर-पुरुष सम्बन्ध बनाना और लिव इन में रहना उसका क़ानूनी हक घोषित कर दिया गया| अब ऐसी स्थिति में अगर पति अपनी पत्नी की कोई भी जाययज और नाजायज मांग को पूरा नहीं करता है तो उसे “बलात्कारी” साबित कर दिया जायेगा| जजसाहब भी सब कुछ जानते हुए अपने को कानून के आगे बेबस बतायेंगे| महिला संगठनों का पुरजोर दावा है कि अगर कानून का 99% तक दुरूपयोग होता है तो क्या कानून न बनाये जाएँ? इसी तरह इन महिलाओं के घर में अगर बहू आ जाये, जो 100 में से 99 बार चाय में चीनी की बजाय उतनी ही मात्रा में नमक डाल दे, तो क्या ये उस बहू की चाय 99 बार तक पियेंगी? या फिर अब बहू की दुविधा व परेशानी को देखते हुए, उससे सबक लेते हुए, चीनी के डिब्बे में भी अब नमक रख दिया जायेगा| सरकार यही करने जा रही है, दहेज़ कानून के 99% दुरूपयोग को देखते हुए इसमें सुधार की बजाय, अब “मैरिटल-रेप” या “वैवाहिक-बलात्कार” की कुव्यवस्था लाने की तैयारी में है, जिसमें IPC 375 में पति को भी बलात्कारी साबित किया जायेगा| इस कानून को लेकर महिलाओं के खुश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जब पति पर रेप की धारा जायज़ हो जाएगी तो उसके घर की महिलाओं, अर्थात सास व ननद भी, पति का साथ देने के आरोप में, “गैंग-रेप” के दायरे में आयेंगी, ठीक वैसे ही जैसे कि दहेज कानून बनने पर जिन महिलाओं ने ख़ुशी जताई थी आज वो भी सास-ननद के रूप में जेलों में बंद हैं और अब उनको महिला मानकर सुनने वाला कोई नहीं है|
विवाह, जिसे एक पवित्र संस्था माना जाता था, अब बर्बादी के कगार पर है| विवाह अर्थात “दाम्पत्य-सूत्र-बंधन” के हिन्दू सप्तपदी के बंधन से स्त्री को न सिर्फ स्वतंत्र बल्कि IPC 497 खत्म करके “यौन-स्वछंदता” की क़ानूनी छूट दे दी है| केंद्र सरकार भी इन स्वछन्द स्त्रियों को सजा न दिए जाने की पैरवी कर रही है| दूसरी ओर वह पति जिसकी पत्नी उससे अलग कहीं भी किसी के साथ रह रही है, उस पत्नी के भरणपोषण का खर्च, पति को जेल भेजकर और उसकी सम्पत्ति कुर्क करके, कोर्ट वसूल करवा रही है| इस सब के लिए पति को, उसके बच्चे से सदा के लिए दूर कर देना, कोर्ट के लिए एक आम बात है| कोर्ट भी सिर्फ स्त्री सम्मान की बात कर रही है, पुरुष सम्मान उनकी नजर में कुछ नहीं है और वहां पर, उसी पति से वसूली व जेल का आदेश देने वाली कोर्ट, अपने को मजबूर बता देती है| भारतीय संविधान की धारा 15(3) कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए, आर्थिक सहायता व संसाधन जुटाने के प्रावधान की व्यवस्था तो देती है, लेकिन प्रावधान के नाम पर किसी तरह का लिंग-भेदी कानून बनाने की इजाजत नहीं देती है और न ही किसी सक्षम पुरुष/व्यक्ति को प्रताड़ित करके, उसके मौलिक अधिकारों का हनन करने का अधिकार देती है| इसीलिए भारतीय संविधान में धारा 15(3) से पहले, धारा 14 में स्पष्ट रूप से लिंगभेद आधारित कानून बनाना मना है, लेकिन फिर भी भारत में धड़ल्ले से लिंगभेदी कानून बन रहे हैं| अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई देशों में बलात्कार और घरेलू हिंसा जैसे कानून लिंगभेद रहित है और वहां हजारों महिलायें बलात्कार जैसे संगीन आरोपों में जेलों में बंद हैं| निर्भया कांड जैसी “यौन-हिंसात्मक” घटना की निंदा लोगों की जुबां पर है लेकिन उत्तर प्रदेश के बाँदा जनपद के “महेंद्र सिंह” जिसके शरीर पर और गुप्तांग पर उसकी पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर एसिड उड़ेल दिया गया, उस पत्नी पर रेप और गैंगरेप की धारा नहीं लगी| इससे पहले दक्षिण भारत के thoothukudi में पुलिस ने एक पिता पुत्र दोनों के गुदा में डंडा डालकर उनकी जघन्य हत्या कर दी, वह भी करोना काल मात्र में दुकान रात 8 बजे के बाद भी खोले रखने पर| इस मामले में फांसी की कितनी सजा की मांग हुई? अभी हाल में कुछ दिन पहले ही रोहतक के पी०जी०आई० अस्पताल में एक ऐसे गंभीर व्यक्ति को लाया गया, जिसकी पत्नी ने ससुराल में पति से कहासुनी होने के बाद, पत्नी ने मायके से अपने भाई व परिवार के अन्य लोगों को बुलाकर ससुराल में ही पति के गुदाद्वार में मिर्ची पाउडर उड़ेलकर, डंडा के साथ, काफी गहराई तक, आगे तक घुसेड़ दिया और यौन-प्रताड़ना की| लेकिन सरकार और समाज की इन आरोपियों को फांसी की सजा कराने में कोई दिलचस्पी नहीं हैं| जबकि 42 मासूम बच्चों की पटक-पटक कर जघन्य हत्या करने वाली सीमा और रेणुका बहनों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने के क़ानूनी पैतरे सरकार और कोर्ट को आते हैं| ऐसी अमानवीय, संविधान विरोधी, एकतरफा लिंगभेदी, महिलावादी, साक्ष्यहीन छेड़छाड़ और बलात्कार के आरोपों के बीच “विवाह का बलात्कार” जैसी व्यवस्था में पुरुष के लिए यही कहा जा सकता है इन भूखे “नरभक्षियों” के बीच पुरुष, अर्थात “बकरे” की माँ कब तक बकरे की खैर मनाएगी| बकरा को एक बार फिर से, बकरी के “वैवाहिक-बलात्कार” का एकतरफा दोषी बताकर, “न्याय के मंदिर” के पुजारियों के बीच काटकर, बांटने-खाने के व्यवस्था की जा रही है| और जो नहीं कटते, वो 73,000 से अधिक विवाहित पुरुष, आत्महत्या कर लेते हैं| आधी आबादी का अर्थ सिर्फ महिला ही नहीं होता, पुरुष भी होता है| विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका को इस गुमनाम आधी आबादी, अर्थात “पुरुष” को भी “मानव” की श्रेणी में रखकर ही सोचना व कार्य करना होगा|
दिनांक – 03 मार्च 2022
लेखक – कपिल मोहन चौधरी, लखनऊ|
(पुरुष अधिकार कार्यकर्ता)