पंद्रहवीं शताब्दी में जब संत कबीर, भक्त रैदास ने निर्गुण भक्ति की तथा गोस्वामी तुलसी के श्रीरामचरितमानस’ ने सगुण भक्ति की धूम मचायी तभी श्री गुरु नानकदेव (ई.1469-1538) ने पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में भक्ति-आन्दोलन तथा सामाजिक समरसता की अलख जगाई हुई थी, उसी समय पूर्व तथा दक्षिण पूर्व में एक अत्यंत तेजस्वी भगवद्भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु हरिस्मरण का आन्दोलन चला रहे थे।
श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म नदिया जिला (पश्चिम बंगाल) में फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। बचपन का नाम विश्वम्भर था, जो आगे चलकर गौरांग हो गया। छोटी आयु में ही वे कृष्णभक्ति में लीन रहते थे। बाद में ईश्वरपुरी के शिष्य हो गए तथा चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया और ‘श्रीकृष्ण चैतन्य’ नाम मिल गया।
इन्होंने भारतीय समाज को नैतिकता, साधुता तथा भक्ति के नए आयाम दिए। लाखों की संख्या में विचारक, कवि, कृषक, व्यापारी आदि इस भक्ति-आन्दोलन के साथ जुड़ते चले गए। इस आन्दोलन में विनम्रता तथा सहजता थी। भक्तिभाव के कारण समर्पण तथा सहनशीलता ने समाज की सभी दूरियों को नष्ट कर दिया। इस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु के सहज प्रयासों से जातिभेद से दूर, वर्णविहीन तथा अनुष्ठान रहति पूजा पद्धति वाला समाज विकसित होता जा रहा था। इसके अन्दर किसी भी प्रकार के सामाजिक बन्धन तथा भेदभाव को स्थान नहीं था। श्री चैतन्य महाप्रभु हरि बोल’ नाम से भजन संकीर्तन करते थे और करवाते थे। उन्होंने वृन्दावन, जगन्नाथपुरी के साथ देश के अनेक स्थानों पर भक्तिभाव की निर्मल गंगा प्रवाहित की। महाप्रभु ने जीवन के अन्तिम बारह वर्ष जगन्नाथपुरी में बिताये। कहते हैं कि जगन्नाथ जी की प्रतिमा के साथ ही वे समाहित हो गए।
पुरी के जगन्नाथजी की रथयात्रा को चैतन्य महाप्रभु ने नये सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों से सुसज्जित कर विश्व-प्रसिद्ध बना दिया। महाप्रभु चैतन्य के समय भगवान् श्री कृष्ण, बलराम तथा उनकी भगिनी सुभद्रा की रथयात्रा जगन्नाथ जी के मन्दिर के सिंहद्वार से प्रारम्भ होती थी। राजा प्रताप रुद्रदेव लाखों भक्तों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे। भगवान् के विग्रहों को भक्त शूद्रगण अनन्य भक्तिभाव से गर्भगृह से लाकर रथों में स्थापित करते हैं, वे ही प्रभु को नैवेद्य अर्पित करते हैं। शूद्रभक्तगणों द्वारा प्रभु को रथ पर बैठालने के साथ ही महाप्रभु चैतन्य अपनी भक्तमण्डली के साथ भगवान् की अर्चना प्रारम्भ करते हुए निवेदन करते हैं :
नाहं विप्रो न च नरपति पि चश्यो न शूद्रो
नाहं वर्णी न च गृहपति! वनस्थो यतिर्वा ।
किन्तु प्रोद्यन्निखिलपरमानन्दपूर्णामृताब्धे
र्गोपीभर्तुः पदकमलयोर्दासदासानुदासः॥
(दलित-देवो भव, द्वितीय भाग, पृ.517)
अर्थात् ‘न तो मैं ब्राह्मण हूँ, नहीं क्षत्रिय, नहीं मैं वैश्य हँया शूद्र; न मैं ब्रह्मचारी हूँ, न गृहस्थ; न मैं वानप्रस्थी और न संन्यासी। मैं तो स्वतः प्रकाशमान अखिल परमानन्द से परिपूर्ण अमृत-सागर-रूप गोपी-वल्लभ भगवान् श्रीकृष्ण के दोनों पद पंकजों के दासों के दासों का अनुदास हूँ।’ महाप्रभु द्वारा दासानुदासः’ का विनयपद पूर्ण होते ही लाखों कण्ठों से ‘हरि-बोल’ की स्वरलहरी आकाश में गूंज उठती है। झाँझ, मृदंग, ढोल, खरताल के मधुर स्वरों के साथ-साथ हरे राम- हरे कृष्ण’ का संकीर्तन प्रारम्भ होता है और जगन्नाथजी का रथ आगे बढ़ता है। यहाँ जाति, वर्ण, भाषा, शिक्षा, पद, प्रतिष्ठा आदि मानवीय भेद स्वतः विगलित होकर जगन्नाथजी की जयकार ही सभी के हृदय, कण्ठ और वाणी पर विराजमान हो जाती है। यहाँ मन्त्र की गोपनीयता या कर्मकाण्डों का जंजाल दिखलाई नहीं देता। कोई भी कार्य छोटा नहीं है। स्वयं महाप्रभु चैतन्य झाड़ लेकर भक्तों के साथ मन्दिर प्राङ्गण की स्वच्छता में जुट जाते थे। सभी जाति, वर्गों के भक्तों के साथ एक ही पंगत में बैठकर भोजन करते थे।
इस रथयात्रा द्वारा चैतन्य महाप्रभु भगवान् को मन्दिर की चारदीवारी से बाहर निकाल कर सड़क पर ले आये। यहाँ जगन्नाथजी सभी को सुलभ थे। शास्त्रों और पोथियों में छिपे मन्त्रों को संकीर्तन के रूप में चैतन्य ने भक्तों की जिह्वा पर लाकर धर दिया। उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए ‘नाम संकीर्तन’ का व्यापक प्रभाव देशभर में हआ। श्री चैतन्य महाप्रभु की ही कृपा से आज का वृन्दावन भक्ति का प्रभावी केन्द्र हो गया। वे राम और कृष्ण दोनों के उपासक थे। ढोलक, मृदंग, मजीरे आदि की सुन्दर मनभावन स्वर लहरी के साथ वे संकीर्तन करते थे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे। हरे राम,हरे राम, राम-राम, हरे-हरे’, का महामन्त्र उन्हीं की देन है। पश्चिमी जगत में आज ‘इस्कान’ का जो प्रभाव बढ़ता दिख रहा है, उसकी मूल प्रेरणा में श्री चैतन्य महाप्रभु ही हैं।
भक्ति में कोई भेदभाव नहीं- श्री चैतन्यदेव को तो सभी के अन्दर प्रभु दिखता था। वे सभी को प्रेमपूर्वक कहते थे ‘हरि बोल’। धोबी, कुम्हार, चमार आदि लोगों के पास बैठकर हरिबोल संकीर्तन करवाते थे। उसका काम अपने हाथ में लेकर कहते थे ‘बोल हरि, बोल हरि’ ; नेत्रों से अश्रुधारा बहती रहती थी, वे तन्मय हो जाते थे। श्री चैतन्य कहते हैं कि भक्ति में जाति का कोई अर्थ नहीं है :
नीच जाति नहिं कृष्ण भजने अयोग्य,
सत्कुल विप्र नहिं भजनेर योग्य।
जेड़ भजे सेइ बड़ो अभक्त हीन छार,
कृष्ण भजने नहिं जाति कुल विचार ॥
(दलित-देवो भव,द्वितीय भाग, पृ. 525)
अर्थात् ‘छोटी कही जाने वाली जाति के लोग कृष्ण भजन के लिए अयोग्य नहीं हैं। अच्छे कुल का ब्राह्मण होने से ही वह भजन के लिए योग्य नहीं हो जाता। जो भजता है वही बड़ा है, अभक्त ही तुच्छ है। कृष्ण के भजन में जाति कुल का कोई विचार नहीं है।’ श्री चैतन्य महाप्रभु के सैकड़ों शिष्य तथाकथित छोटी जातियों एवं मुसलमानों में से आए थे।
घनघोर निराशा के उस काल में श्री चैतन्य महाप्रभु एक प्रेरक जीवनी-शक्ति के रूप में अवतरित हुए थे। उस काल में लोक की पीड़ा को वे अनुभव करके चल रहे थे। उनका ‘हरि’ सभी के अन्दर विराजमान था। उनके संकीर्तन की स्वर-लहरी ने जनआन्दोलन का स्वरूप ले लिया। मुस्लिम विजेता शासकों के डर के कारण जहाँ मुँह से बोल नहीं फूटते थे वहाँ ‘हरि बोल-हरि बोल’ के संकीर्तन से ग्राम-गलियाँ गूंज उठीं। झाँझ, मजीरे, मृदंग, घुघरू के हृदयस्पर्शी स्वर से ऐसे बोल फूटे कि दिग्दिगंत गुंजरित होने लगा। लोग हजारों की संख्या में एकत्रित होकर आने लगे और उन्हें अपने ऊपर विश्वास होने लगा कि हमारे अन्दर भी शक्ति है, हमारे प्रभु हमारे साथ हैं। अपने धर्म और अपनी आस्थाओं पर हम सगर्व टिके रह सकते हैं। हिन्दू समाज की लुप्त हो रही चेतना पुनः वापस आने लगी। सर्कस में मालिक के आदेशों और निर्देशों पर करतब दिखाने वाले पालतू सिंहों की तरह किसी प्रकार अपना जीवन काट रहा स्वाभिमान शून्य हिन्दू समाज अपने पूर्वजों की महान् परम्परा का स्मरण करता हुआ पुनः अपने आत्मबल की अनुभूति करने लगा। मुझाए हुए चेहरे आशा और विश्वास के साथ पुनर्दीप्त होने लगे। हताश लोगों में भी जान आ गई। समाज नवचैतन्य के साथ खड़ा होने लगा।
श्री चैतन्य तो ‘हरि-हरि’ कहकर सभी को अपने हृदय से लगा लेते थे। यदि कोई कहता कि मैं तो हीनजन्मा हूँ, आपके स्पर्श योग्य नहीं हूँ तो वे हँसकर कहतेः “श्री कृष्ण और उनके भक्त हर जाति, हर रूप में मिलते हैं। उन्हें स्पर्श करने में भला कौन धर्मशास्त्र दोष निकाल सकता है? भगवान् नीचों के प्रति अधिक कृपालु होते हैं। कुलीनों और पण्डितों को अपने कुल, विद्या आदि का अभिमान होता है। श्रीकृष्ण तो उसे मिलते हैं जो सहनशील होकर, अमानी होकर भी दूसरों को मान देकर उनका भजन भजन करता है”
(चैतन्य महाप्रभु, पृ. 135)
श्री चैतन्य की अहैतुकी भक्ति का मर्म- श्री चैतन्य महाप्रभु ने सर्वत्र भक्ति का ही सन्देश दिया। राजमहल से लेकर मणिकर्णिका (काशी के श्मशान) घाट के चाण्डाल तक वे इसका प्रसाद वितरित करते रहे। मनुष्य-मनुष्य के मध्य किसी भी प्रकार की विभाजक रेखाओं को उन्होंने नष्ट कर दिया। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर तक, पश्चिमी तट से लेकर असम की उपत्यकाओं में उस भक्ति की गूंज उठने लगी। यह भक्ति किसी भी प्रकार के हितसाधन, अपेक्षा या कामना से कोसों दूर थी। यह भक्ति अति-विनम्रता के साथ सर्व-सामर्थ्यवान थी। इसके सम्मुख बड़े-बड़े महाराजे भी तुच्छ थे, शरणागत थे। उसी भक्ति के लिए श्री चैतन्य देव प्रभु से प्रार्थना करते हैं :
न धनं न जनं न सुन्दरी कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
(श्री चैतन्य महाप्रभु, पृ. 370)
अर्थात् ‘हे जगदीश्वर ! मैं धन, जन, कविता अथवा सुन्दरी कुछ भी नहीं चाहता, हे ईश्वर! जन्म-जन्मान्तरों में आपके प्रति मेरी अहैतुकी-भक्ति हो।’ स्वामी विवेकानन्द कहते हैं: “यह अहैतुकी-भक्ति, यह निष्काम कर्म, यह निरपेक्ष कर्त्तव्यनिष्ठा का आदर्श-धर्म के इतिहास में एक नया अध्याय है। मानव इतिहास में पहली बार भारतभूमि पर सर्वश्रेष्ठ अवतार श्री कृष्ण के मुख से पहले-पहल यह तत्व निकला था। भय और प्रलोभनों के धर्म सदा के लिए विदा हो गए और मनुष्य-हृदय में नरक-भय और स्वर्ग-सुखभोग के प्रलोभन होते हुए भी प्रेम के निमित्त प्रेम, कर्त्तव्य के निमित्त कर्त्तव्य, कर्म के निमित्त कर्म जैसे सर्वोत्तम आदर्शों का अभ्युदय हुआ।”
(वही, पृ. 370)
श्री चैतन्य महाप्रभु के बहुआयामी व्यक्तित्व के बारे में श्री रामकृष्ण परमहंस, कहते हैं : “चैतन्य देव का ज्ञान सौर-ज्ञान था-ज्ञान सूर्य का प्रकाश था, और उनके भीतर भक्तिचन्द्र की ठण्डी किरणें भी थीं। ब्रह्मज्ञान और भक्तिप्रेम दोनों ही थे। … चैतन्य देव की जब बाह्मदशा होती थी, तब वे नाम-संकीर्तन करते थे। अर्धबाह्य दशा में भक्तों के साथ नृत्य करते थे । अन्तर्दशा में समाधिस्थ हो जाते थे। श्री चैतन्य भक्ति के अवतार थे। वे जीवों को भक्ति की शिक्षा देने के लिए आये थे
(वही, पृ. 365-367)
स्वामी विवेकानन्द ने श्री चैतन्य के सामाजिक समरसता के प्रयासों के बारे में कहा है : “श्री चैतन्यदेव स्वयं एक ब्राह्मण थे, … वे न्याय के अध्यापक थे, तर्क द्वारा सभी को परास्त करते थे। … किसी महापुरुष की कृपा से उनका सम्पूर्ण जीवन बदल गया, तब उन्होंने वाद-विवाद, तर्क, न्याय का अध्यापन, सब कुछ छोड़ दिया। संसार में भक्ति के जितने भी बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं, प्रेमोन्मत्त चैतन्य उनमें से एक श्रेष्ठ आचार्य हैं। उनकी भक्ति तरंग सारे बंगाल में फैल गयी , जिससे सबके हृदय को शान्ति मिली। उनके प्रेम की सीमा न थी। साधु, असाधु, हिन्दू, मुसलमान, पवित्र, अपवित्र, वेश्या, पतित-सभी उनके प्रेम के भागी थे, वे सब पर दया रखते थे। …वे स्वयं भारत में नंगे पैर द्वार-द्वार पर जाकर चाण्डाल तक को उपदेश देते थे तथा भगवान् के प्रति प्रेमसम्पन्न होने की भीख माँगते फिरे।”
(वही, पृ. 368-369)
श्री चैतन्य महाप्रभु ने विदेशी शासकों के प्रबल प्रताप, विधर्मी स्वभाव एवं कठोर सामाजिक नियन्त्रण की उपेक्षा करते हुए भक्तिजागरण के द्वारा सामाजिक एकता का सन्देश देना जारी रखा। वर्तमान बंगाल के धर्म, संस्कृति, भाषा, साहित्य, संगीत, कला आदि सभी क्षेत्रों में जो गौरवमयी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है वह सब श्री चैतन्य महाप्रभु की भावराशि से ही परिपुष्ट हुआ है। हजारों लोगों ने अपनी जन्मजात वर्जनाओं का अतिक्रमण कर अपनी भक्तिसाधना तथा गुणों के आधार पर गोस्वामी की उपाधि अर्जित की और समाज में शीर्षस्थान पर पहुँचकर ब्राह्मण के आसन पर स्थापित हो गए तथा सैकड़ों वर्षों तक समाज को सत्पथ पर ले चलने का यशस्वी कार्य भी करते रहे।
नवद्वीप में मुसलमानों द्वारा नियुक्त काजी वहाँ का प्रधान न्यायाधीश था। चैतन्य महाप्रभु की प्रसिद्धि देख काजी ने घोषणा कर दी : “आज से कोई भी उच्चस्वर में कीर्तन नहीं कर सकेगा। यदि कोई कीर्तन करते मिला तो उसका सर्वस्व तथा उसकी जाति भी छीन ली जाएगी।” काजी का आदेश सुनकर भक्तों के बीच आतंक छा गया। परन्तु, निमाई बिन्दुमात्र भी नहीं डरे। उन्होंने कहा, “आज नगर में कीर्तन का अच्छा प्रबन्ध करना।” अन्तरंग भक्तों को लेकर महासकीर्तन की विराट् व्यवस्था होने लगी। संध्या होते ही घी के सैकड़ों मशाल जल उठे और एक साथ सैकड़ों खोलकरताल तथा सिंगा बजने लगे। असंख्य भक्त निमाई को घेर कर कीर्तन करने लगे। लोग भी सुधबुध खोकर कीर्तन में शामिल होकर साथ-साथ चलने लगे। क्रमशः वह एक विशाल जनसमुद्र में परिणित हो गया। … असंख्य जनता द्वारा मुहुर्मुहुः जयघोष सबसे काजी का हृदय काँप उठा। काजी डर के मारे घर के भीतर जाकर छिप गया। जाजी के घर के बाहर पहुँचकर निमाई ने कीर्तन बन्द कर दिया। काजी ने द्वार पर आकर म का स्वागत किया। काजी निमाई का परम अनुरागी हो गया। काजी के प्रयासों से नवद्वीप में गोहत्या बन्द हो गयी। अब भी नवद्वीप में काजी की समाधि विद्यमान है।“
(श्री चैतन्य महाप्रभु, पृ. 65-67)
संकटकाल में हिन्दू समाज ने अपने चारों ओर का खोल और अधिक कठोर कर लिया था। बाहर से हिन्दू परिधि के अन्दर प्रवेश पाना आसान न था। चैतन्य महाप्रभु ने इन बन्धनों तथा निषेधों को ढीला कर दिया। वे सभी का हाथ फैलाकर स्वागत करने को तैयार थे। स्वामी सारदेशानन्द लिखते हैं : “बौद्ध धर्म के अधःपतन के फलस्वरूप अनेकानेक लोग धर्म, शास्त्र तथा आचार से रहित होकर अत्यन्त दुरावस्था को प्राप्त हो गए थे। उच्च वर्ग के हिन्दू उन्हें समाज में स्थान नहीं देते थे। इसके अतिरिक्त देश (बंगाल) के सीमावर्ती क्षेत्रों के बहुत से आदिवासी क्रमशः उन्नति करते हुए हिन्दू सभ्यता की ओर आकृष्ट हए थे। … निमाई के प्रेम का आह्वान पाकर ये लोग दलके-दल आने लगे। … प्रेम के बल से निमाई ने सबका हृदय जीत लिया। इन लोगों की जीवन पद्धति तथा आचार-व्यवहार में परिवर्तन आ गया। निमाई की कृपा से ये लोग माला-तिलक-शिखा आदि आर्यचिह्न धारण करने लगे, नाम-महामंत्र की दीक्षा ग्रहण करने लगे, एकादशी-जन्माष्टमी-शिवरात्रि-रामनवमी आदि के अवसरों पर व्रत करने लगे और विवाह-श्राद्ध आदि वैदिक क्रियाओं का यथासाध्य अनुष्ठान करते हुए हिन्दू समाज में विलीन हो गए।… उन्होंने प्रचार किया-‘भगवद्भक्त चाण्डाल भगवद्विमुख ब्राह्मण से कहीं श्रेष्ठ है।’ वे उच्च स्वर में कहते- “मोची भी यदि भक्तिपूर्वक कृष्ण का नाम लेकर पुकारे, तो उसके चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। (वही, पृ. 67-68)
श्री चैतन्य महाप्रभु के विश्व बन्धुत्व तथा कृष्ण-भक्ति से प्रेरित होकर बंगाल, बिहार आदि क्षेत्र के दो हजार पाँच सौ से भी अधिक मुसलमान हिन्दू हो गए। इनमें शेरखान, डबरी खान तथा मलिक आदि ख्याति प्राप्त साहित्यिक भी थे। वे सभी नव हिन्दू वैष्णव सम्प्रदाय में शामिल हुए। श्री चैतन्य की वंदना करते हुए एक स्तोत्र में कहा गया है:
सात वंदे स्वैराद्भुतेहं तं चैतन्य यत्प्रसादात।
यवना सुमनायन्ते कृष्णनाम प्रजल्पकाः॥
अर्थात् ‘जिसके प्रसाद स्वरूप कृष्ण नाम को जपने वाले यवन भी पुष्प की तरह सुगन्धित हो गए उन महाप्रभु चैतन्य की मैं वन्दना करता हूँ।’
श्री रामस्वरूप शर्मा लिखते हैं : “महाप्रभु की भक्ति का भारत के पूर्वी भाग के क्षेत्रों में इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि हिन्दू और मुसलमान सभी वर्गों के लोग उनके अनुयायी बनने लगे। बंगाल में उस समय हुसैन शाह का शासन था। महाप्रभु सन् 1514 में जब जगन्नाथपुरी से रामकेलि (बंगाल की तत्कालीन राजधानी) आये तो अपार जन समूह उनके पीछे चल पड़ा, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे। इन्हीं लोगों में हुसैन शाह के दो सिपहसालार, सकर मलिक एवं दाबिर खाँ (या दाबिर खास) अत्यन्त विनम्र भाव से दाँतों में तिनके दबाये हुए उनकी शरण में आये। महाप्रभु ने उनका स्वागत किया। संन्यासियों के रूप में क्रमशः सनातन गोस्वामी तथा रूप गोस्वामी के नये नाम उनको दिये गए।” (कादम्बिनी- अक्टूबर- 2006, पृ. 59)
आचार्य किशोर कुणाल लिखते हैं कि अब मुसलमान से हिन्दू होने का मार्ग खुल चुका था। उदाहरण स्वरूपः भविष्य पुराण के अनुसार जो भी हिन्दू या मुसलमान उनके धर्म में आना चाहता है, उसे स्वीकार कर लिया जाता है, किसी को अस्वीकार नहीं किया जाता है, बल्कि सबका स्वागत किया जाता है। मोहसिन फानी ने आगे लिखा है कि बहुत से मुसलमान बैरागी बने, जिनमें दो कुलीन मुसलमान मिर्जा शाह और मिर्जा हैदर थे, जो बैरागी बने।”
(दलित-देवो भव, द्वितीय भाग, पृ.143)
पूर्वांचल की पर्वत श्रृंखलाओं में रहनेवाली अनेक जनजातियों को हिन्दू समाज के मूल प्रवाह में लाने का कार्य श्री चैतन्यदेव के शिष्यों ने सफलता पूर्वक सम्पन्न किया। मणिपुर का बहुसंख्य वैष्णव समुदाय आज कृष्णभक्ति में मगन हुआ दिखता है तो इसकी पृष्ठभूमि में भी श्री चैतन्यदेव की दिव्य प्रतिमा दृष्टिगोचर हो जाती है। असंख्य पतित, अस्पृश्य, विधर्मी तथा असभ्य कहलाए जाने वाले लोग श्री चैतन्यदेव की कृपा से विराट् हिन्दू समाज के अंगीभूत हो गए।
संदर्भ पुस्तक –भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता; लेखक –डॉ कृष्ण गोपाल
(पृष्ठ, 374-381)