कल्पना कीजिये कि आप मास्को में है जहां रूस के कोने कोने से आये कुछ लोग अपनी बात कह रहे हैं जिसमे वे बात बात में संस्कृत के श्लोक बोलते हैं , राधे राधे कहते हैं , आपको ‘प्रणाम’ से संबोधित करते हैं तो आपने मन के भाव क्या होंगे ? विस्मय , प्रसन्नता और प्रेम तीनो के समन्वित भाव को शब्द में कैसे व्यक्त किया जाता है इसका शायद अभी अविष्कार होगा। लेकिन अपनी रूस यात्रा के दौरान मास्को में ” रूस में वैदिक संस्कृति ” विषय पर आयोजित सम्मेलन में भाग लेकर कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। भारतीय दूतावास के सौजन्य से यह कार्यक्रम था जिसमे रूस के कोने कोने से ऐसे लोग आमंत्रित थे जो हमारी वैदिक संस्कृति से परिचित और प्रभावित थे। इसकी संख्या कई सौ में हो सकती थी लेकिन कुछ चुने हुए लोग ही आमंत्रित थे। यह अपनी तरह का पहला प्रयास था ऐसे लोगो को साथ लाने का और उनकी आपस मे चर्चा करने का।
कार्यक्रम में रूस में भारत के राजदूत माननीय श्री वेंकटेश वर्मा उपस्थित थे जिन्होंने स्वागत और उद्घाटन भाषण दिया। माननीय सुरेश सोनी जी ने भारत की वैदिक संस्कृति की महत्ता के बारे में भाषण दिया। मुझे वैदिक संस्कृति के वैश्विक विस्तार पर बोलने का अवसर मिला। श्री शरद बक्शी जो पिछले बीस वर्षों से रूस में है और अभी रूस में ही गो लोक प्रोजेक्ट चला रहे हैं ने रूस में वैदिक विज्ञान के प्रयोग के विषय मे बताया और सेवा निवृत्त प्रोफेसर यूरी निकलिकोव ने रूस में वैदिक संस्कृति के उद्भव पर व्याख्यान दिया।
इसके अलावा दिमित्री , मरनिकोव और कुछ अन्य लोगो ने अपने अपने प्रयोगों के बारे में बताया। श्री आशीष भावे जो इंडियन सोसाइटी कल्चरल स्टडीज के मानद निदेशक है तथा ए बी सी पी के उपाध्यक्ष श्री सोनम वांगचुक भी इस कार्यक्रम मे उपस्थित थे।
कार्यक्रम में हुई चर्चा तो बहुत उपयोगी और सारगर्भित रही लेकिन कार्यक्रम के दौरान और बाद में जो अनुभव आया वह अलौकिक था। कार्यक्रम की शुरुआत वैदिक मंत्रोच्चार से हुई जो एक उत्साही रूसी युवक ने किया। उसने अपने परिचय में कहा “मैं अभी गुरुजी से वैदिक मंत्र सीख रहा हूँ और आप कुछ दिन बाद रूसी पंडित कह पाएंगे । ” मंत्रोच्चार के बाद उसने हनुमान चालीसा का पाठ किया। वह थोड़ा लड़खड़ाया तो उसका साथ देने हॉल में बैठे कुछ और लोग भी हनुमान चालीसा बोलने लगे। फिर एक भगिनी ने गायत्री मंत्र का उच्चार किया। ऐसा लग रहा था मानो हम रूस में नही भारत के ही किसी शहर में हैं ।
कार्यक्रम में चर्चा के दौरान एकाधिक लोगो ने आग्रह किया कि रूस के स्कूलों में वैदिक ज्ञान और योग नियमित रूप से पढ़ाया जाना चाहिए जिससे हमारे बच्चों का जीवन संवर जाए। कइयों को चिंता थी कि उनके जीवन मे जैसी आध्यात्मिक शून्यता थी वैसी उनके बच्चों में न आये।
कुछ लोग आयुर्वेद के लिए काम करना चाहते थे तो कुछ लोग योग के लिए अपना पूरा जीवन लगाना चाहते थे। किसी ने अपनी पूरी संपत्ति लगाकर एक वैदिक संस्थान बनाने का निश्चय किया था तो कोई भारतीय ज्ञान परंपरा पर आधारित गुरुकुल खोलना चाहता था।
ऐसे काफी लोग थे जिन्होंने तीन चार बार भारत की यात्रा की थी और विभिन्न देवस्थानों में काफी समय बिताया था। कुछ ऐसे भी थे जो भारत मे पढ़ कर आये थे लेकिन फिर वैदिक वांगमय में उच्च अध्ययन के लिए भारत जाना चाहते थे। कुछ ऐसे भी थे जो कभी भारत नही आये लेकिन इस कार्यक्रम में भाग लेने के बाद बार बार इस बात के लिए दुख प्रकट कर रहे थे कि वे हमसे पहले क्यो नही मिल पाए। दिमित्री जो अपनी पूरी ऊर्जा जगन्नाथ धाम बनाने में लगे थे अपनी पत्नी जो विशेष रूप से साड़ी पहनकर आयी थी , के साथ इस बात का आग्रह कर रहे थे कि हमे उनके घर जाना चाहिए । शरद बक्शी की पत्नी रूसी थी लेकिन उनकी मांग में भरा सिंदूर बार बार ध्यान खींच लेता था।
भारत के साथ रूस के सांस्कृतिक संबंध बहुत पुराने और बहुत अच्छे रहे हैं। राजनीतिक संबंध भी बहुत अच्छे रहे हैं। लेकिन हमारे संबंधों की जड़ें कितने गहरी है यह जान पाना कठिन है।रूसी लोगो मे कुछ ऐसे भी थे जो अपने आप को हनुमान जी के अनुयायी या वंशज मानते हैं। एक विद्वान ने विक्रमादित्य के साथ संबंध जोड़ते हुए बताया कि तीसरी शताब्दी में वे रूस से भारत गए। संबंधों की पड़ताल में ऐसे ऐसे तथ्य सामने आए कि हम सब चोंक गए। यह सब हमारी कल्पना के परे था।
रूसी भाषा मे संस्कृत के काफी शब्द हैं। व्याकरण में भी समानता है। रूस के विद्वानों का संस्कृत और भारतीय ग्रंथो पर अच्छा अध्ययन रहा है। इतना सब मालूम होने पर भी ये जो जानकारी मिल रही थी सर्वथा अलग और अनूठी थी।लेकिन सबसे अनूठी थी उन सबकी भारत की आध्यात्मिकता को लेकर गहरी आस्था और पिपासा।वे सब मंत्रमुग्ध थे और भाव विभोर थे। भारत के प्रति उनका आकर्षण और भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी आस्था देखकर हुए अनुभव को शब्दों में बताना कठिन है। उनकी आस्था और भाव देखकर कई बार आंखे नम हुई और गला रुंध गया। पलोव जब मेरा हाथ अपने हाथ मे लेकर कह रहे थे ” राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे, सहत्र नाम त तुल्यम राम नाम वरानने।” तो मेरी आँखें नम हो आयी। अंतिम शब्द बोलते बोलते पलोव का भी गाला रुंध आया ।
कार्यक्रम का समय कब का समाप्त हो गया था लेकिन लोग जाना ही नही चाह रहे थे मानो वे इन क्षणों को वही रोक लेना चाहते हो। उनका कहना था हमे और ज्यादा देर के लिए मिलना चाहिए , बार बार मिलना चाहिए। “दासवेदानिया ” न जाने कितनी बात कहा गया, लेकिन विदा लेने का मन न उनका हो रहा था और न हमारा। संस्कृति के तार जो भूगोल ने कही कभी तोड़ दिए होंगे, वे फिर जुड़ते नज़र आ रहे थे । ऐसे में “दासवेदानिया ” और ” पुनरागमनायच ” जैसे शब्द अपने अर्थों को सार्थक कर भावनात्मक विदाई का साक्षात्कार कर रहे थे और उसे महसूस करना हम सबके लिए अविस्मरणीय बन गया।
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