कह रैदास तेरी भक्ति दूर है, भाग बढे सो पावे!
तजि अभिमान मेटि आपा पर , पिपिलक है्व चुनिंदा खावे !!
सतगुरु श्री गुरु रविदास जी के 645 वें प्रकाशपर्व की आप सभी को परिवार सहित हार्दिक बधाई ! ऊपर के श्लोक में श्री गुरु जी कहते हैं कि हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि छोटे शरीर की चींटी इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है ! आशय यह है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है !
संत रविदास जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को खत्म किया तथा व्यक्ति को कर्मकांड करने की बजाय कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित किया ! श्री गुरु रविदास जी ने अपने पदों व साखियों में श्रम को ही मुख्य आधार बनाया ! वे लिखते हैं :- जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों करि कार ! राम मिलहिं घर आइ कर, कह रविदास विचार !
श्री गुरु रविदास जी मानते थे कि ईश्वर एक है, उन्हें मानने वालों ने उन्हें अलग – अलग नाम दे दिया है ! श्री गुरु रविदास जी के 40 पद श्रीगुरु ग्रंथ साहिब जी में शामिल हैं ! यही कारण है असमानता और अहंकार से युक्त समाज में रहकर संत रविदास जी अपने समय में एक ऐसे बेगमपुर ( बेगमपुरा सहर को नाऊं, दुख अन्दोख नहीं तिहि ठाऊं ) की परिकल्पना करते हैं, जहाँ किसी को दुख न हो और सभी इंसान समान हों, तभी ईश्वर की आराधना सफल हो सकती है !
श्री गुरु रविदास जी ने समानता और समरसता के आधार पर नव समाज का गठन किया ! श्री गुरु रविदास जी की सर्वाधिक ऊर्जा अपने समय के पाखंड से लड़ने में खर्च हुई क्योंकि उन्हें पता था कि इसके बगैर समता, समानता व सहअस्तित्व की भावना को अर्जित नहीं किया जा सकता !
यदि हम अपने जीवन में श्री गुरु रविदास जी के उपदेशों का अनुकरण कर लें, तो न सिर्फ हमारी आत्मा स्वच्छ व सुंदर विचारों से आलोकित होगी, बल्कि समाज का भी कल्याण व उत्थान हो पाएगा! यदि हमारे विचार श्रेष्ठ होंगे और सभी के प्रति हमारे भीतर सदव्यवहार का भाव होगा, तब हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य समाज के हित की भावना से प्रेरित होगा! तभी असमानता, सबल व निर्बल के बीच भेदभाव व और सामाजिक अवगुण भी अपने – आप समाप्त हो जाएंगे !
सतगुरु श्री रविदास महाराज जी की जय।