चंडीगढ़ : अपने आप को समझाएं कि आप जो भी महसूस करते है वह सही है, दिन कभी अच्छा तो कभी बुरा भी होता है, गलतियां हो सकती हैं, हर समय कोई भी हमेशा सही नहीं हो सकता। हमेशा “सर्वश्रेष्ठ बनने” के लिए अपने आप पर दबाव न डालें। जब आप कठिनाई का अनुभव करते हैं, तो स्वयं के प्रति दयालु बनें, स्वयं का वर्णन करने के लिए नकारात्मक शब्दों का प्रयोग न करें। कठिन समय में अपनी ताकत और पिछली सफलताओं को याद करें (यदि आपने सकारात्मक सोच का अभ्यास किया है तो यह करना आसान हो जाएगा । ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमारजी आलोक ने सैक्टर 24सी अणुव्रत भवन में सभा को संबोधित करते हुए कहे।
मनीषीसंत ने आगे कहा क्या आप जानते हैं कि दूसरों के प्रति दयालु होने से हमें भी खुशी मिलती है? दूसरों की मदद करना, तारीफ करना या दूसरों के प्रति उदार होना हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। इसी तरह, जब हम अपने प्रति किए गए उदारता से ‘कृतज्ञता’ का अनुभव करते हैं तो हमारा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है समस्याओं का निराकरण करने के लिए सफल मानसिकता की जरूरत होती है जब तक मानसिकता मजबूत नही होती तबतक समाधान नही किया जा सकता। समस्याओं के निराकरण के लिए जरूरी है व्यक्ति अपने नजरिये से ना देखकर सामुहिक तरीके से देखे तब भी समस्या का समाधान हो सकता है वर्ना समस्याएं उलझती चली जाती है। अणुव्रत एक ऐसा सूत्र है उस सूत्र से हम समस्याओं को समाप्त कर सकते है। उसमें जाति संपद्राय, धर्म लिंग का भेद नही है। आचार्यश्री तुलसी ने राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का भगीरथ कार्य किया। उनकी सोच का नजरिया गहरा था। वे हमेशा एक दृष्टिकोण से नही विभिन्न दृष्टिकोण से समस्याओंको सुलझाने का प्रयत्न करते थे। ऐसा तो कोई युग नही रहा जहां समस्याएं ना रही हो और ना ही ऐसा युग आएगा जहां इन समस्याओं का समाधान नही होगा।
मनीषीसंत ने आगे कहा प्रार्थना का तात्पर्य है-परमात्मा के करीब होना। मनुष्य को आंतरिक बल प्रदान करने का कार्य प्रार्थना करती है। प्रार्थना यदि मन से की जाए तो परमेश्वर हमारी पुकार अवश्य सुनते हैं, प्रार्थना का तात्पर्य है-परमात्मा के करीब होना। प्रार्थना के समय विचारों में गिरावट न आने दें। अच्छे विचारों से ही प्रार्थना को बल मिलता है। इस नश्वर संसार में जो व्यक्ति धर्म का आचरण करते हुए नित्य प्रभु की प्रार्थना करता है, उसे अथाह सुख की अनुभूति होती है। प्रार्थना अंतर्मन की पुकार है।
मनीषीसंत ने अंत मे फरमाया मनुष्य को आंतरिक बल प्रदान करने का कार्य प्रार्थना करती है। प्रार्थना यदि मन से की जाए तो परमेश्वर हमारी पुकार अवश्य सुनते हैं, परंतु अक्सर हमारी प्रार्थना तब अपना पूरा असर नहीं डाल पाती, जब उसमें भाव और पूर्ण निष्ठा की कमी होती है। प्रार्थना में भाषा का उतना महत्व नहीं है, जितना भाव का। प्रार्थना के साथ-साथ अपने कर्मों का लेखा-जोखा भी अवश्य करते रहें। तब जाकर बात बनती है। प्रार्थना में मन-मस्तिष्क की एकाग्रता के साथ-साथ समर्पण का भी विशेष महत्व है। सच्ची प्रार्थना वे ही कर पाते हैं जिनका हृदय मंदिर पवित्र होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि परमात्मा का निवास निर्मल मन में ही होता है।