के के शर्मा , नवल सागर कुंआ, बीकानेर : भारतीय समाज की विडंबना ही है कि अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की 21वीं सदी में भी जरूरत पड़ रही है। लगभग सात दशक पहले संविधान में दिये गये समानता के अधिकार के बाद भी देश में जाति आधारित भेदभाव समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा। इस तस्वीर का दूसरा पहलु भी है, वंचितों व शोषितों को बचाने के लिए बनाए गए कानूनों का दुरुपयोग भी हो रहा है। समाज को जोड़ने के उद्देश्य से लाए गए कानून उसी समाज को बांटते दिखने लगे हैं। इस बात के पक्ष में दो उदाहरण दिए जा सकते हैं। धनरूआ पुलिस ने 2017 में दो दंगाईयों को गिरफ्तार किया। इस हंगामे को कराने में मसौढ़ी की विधायक रेखा देवी के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया। इस पर विधायक ने मसौढ़ी डीएसपी सुरेंद्र कुमार पंजियार के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने की प्राथमिकी दर्ज करा दी। इससे पुलिस प्रशासन में खलबली मच गई लेकिन आरोपों की जांच की गयी, तो गलत मिले।
सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में अपने पहले के फैसले पर रोक लगाने से पूरी तरह इंकार कर दिया. इसके अलावा राजनीतिक दलों को भी नोटिस जारी किया गया है. मामले की सुनवाई दस दिनों बाद होगी. एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के मुद्दे पर केंद्र की ओर से दाखिल की गई पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रदर्शनकारियों को एक्ट को लेकर भड़काया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि वह एक्ट के खिलाफ नहीं बल्कि निर्दोष लोगों को हो रही सजा के खिलाफ है.सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में दिए गए अपने फैसले पर रोक लगाने से स्पष्ट इंकार कर दिया है. इस पर राजनीति कर रहे तमाम दलों और विरोध कर रहे दलित संगठनों को भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से करारा झटका लगा है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने सुनवाई के दौरान स्पष्ट कर दिया कि वह किसी सूरत में इस फैसले पर स्टे नहीं लगा सकता है.सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रदर्शनकारियों ने फैसले को न तो पढ़ा है और न समझा है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह एक्ट के खिलाफ नहीं है बल्कि इस एक्ट के कारण निर्दोष लोगों को जेल भेजे जाने के सिलसिले के खिलाफ है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह किसी कानून के खिलाफ कतई नहीं है लेकिन जो लोग इस एक्ट के कारण जेल में बंद हैं सुप्रीम कोर्ट को उनकी चिंता करनी ही होगी. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थक है और इस एक्ट के कारण जेल में बंद लोगों को न्याय दिलाना प्राथमिकता है.
क्या है यह एससी/एसटी एक्ट जो हर दल के नेता इसके लिए बेचैन हैं, आखिर क्यों ?
एससी/एसटी वर्ग के सम्मान, स्वाभिमान, उत्थान एवं उनके हितों की रक्षा के लिए यह कानून बनाया गया. भारतीय संविधान में किये गये विभिन्न प्रावधानों के अलावा इन जातीयों के लोगों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए, 16 अगस्त 1989 को भारत सरकार ने भारतीय संविधान की अनुच्छेद 17 के आलोक में यह विधान पारित किया. इस अधिनियम में छुआछूत संबंधी अपराधों के विरूद्ध दण्ड में वृद्धि की गई हैं तथा दलितों पर अत्याचार के विरूद्ध कठोर दंड का प्रावधान किया गया है. इस अधिनिमय के अन्तर्गत आने वाले अपराध संज्ञेय गैरजमानती और असुलहनीय होते हैं. यह अधिनियम 30 जनवरी 1990 से भारत में लागू हो गया. अधिनियम की धारा 3 (1) के अनुसार जो कोई भी यदि एससी एसटी का सदस्य नहीं हैं और इस वर्ग के सदस्यों पर अत्याचार या अपराध करता है़ तो कानून वह दण्डनीय अपराध माना जायेगा. इस अधिनियम के तहत अनुसूचित वर्गों के विरुद्ध किए जाने वाले नए अपराधों में जूते की माला पहनाना, उन्हें सिंचाई सुविधाओं तक जाने से रोकना या वन अधिकारों से वंचित करके रखना, मानव और पशु कंकाल को निपटाने, कब्र खोदने के लिए तथा बाध्य करना, सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उपयोग और अनुमति, इन वर्गों की महिलाओं को देवदासी के रूप में समर्पित करना, जाति सूचक गाली देना, जादू-टोना अत्याचार को बढ़ावा देना, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करना, चुनाव लड़ने से रोकना, महिलाओं के वस्त्र हरण करना, किसी को घर, गांव और आवास छोड़ने के लिए बाध्य करना, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना, यौन दुर्व्यवहार करना दंडनीय अपराध है। इस कानून की तीन खासियत है. यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों में शामिल व्यक्तियों के खिलाफ़ अपराधों को दंडित करता है. यह पीड़ितों को विशेष सुरक्षा और अधिकार देता है. यह अदालतों को स्थापित करता है, जिससे मामले तेज़ी से निपट सकें.
आख़िर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फ़ैसला क्यों दिया और ये क्यों कहा कि एससी/एसटी एक्ट का बेज़ा इस्तेमाल हो रहा है.
इस मुक़दमे की कहानी महाराष्ट्र के सतारा ज़िले के गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी, कराड से शुरू होती है.कॉलेज के स्टोरकीपर भास्कर करभारी गायकवाड़ की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में उनके ख़िलाफ़ निगेटिव कॉमेंट्स किए गए.एससी/एसटी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले भाष्कर के ख़िलाफ़ ये कॉमेंट्स उनके आला अधिकारी डॉक्टर सतीश भिसे और डॉक्टर किशोर बुराडे ने किए थे जो इस वर्ग से नहीं आते थे.सतीश भिसे और किशोर बुराडे की रिपोर्ट के मुताबिक़ भास्कर अपना काम ठीक से नहीं करते और उनका चरित्र ठीक नहीं था.4 जनवरी, 2006 को भाष्कर ने इस वजह से सतीश भिसे और किशोर बुराडे के ख़िलाफ़ कराड पुलिस थाने में एफ़आईआर दर्ज कराई.भास्कर ने 28 मार्च, 2016 को इस मामले में एक और एफ़आईआर दर्ज कराई जिसमें सतीश भिसे और किशोर बुराडे के अलावा उनकी ‘शिकायत पर कार्रवाई न करने वाले’ दूसरे अधिकारियों को भी नामजद किया.एससी/एसटी एक्ट के तहत आरोपों की जद में आए अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने अपनी आधिकारिक क्षमता में अपने अच्छे विवेक का इस्तेमाल करते हुए ये प्रशासनिक फ़ैसले लिए थे.किसी स्टाफ़ की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में उसके ख़िलाफ़ निगेटिव कॉमेंट्स अपराध नहीं कहे जा सकते, भले ही उनका आदेश ग़लत ही क्यों न हो.अगर एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामले खारिज़ नहीं किए जाते तो अनुसूचित जाति और जनजाति से ताल्लुक रखने वाले स्टाफ़ की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में सही तरीके से भी निगेटिव कॉमेंट्स दर्ज कराना मुश्किल हो जाएगा.इससे प्रशासन के लिए दिक्कत बढ़ जाएगी और वैध तरीके से भी सरकारी काम करना मुश्किल हो जाएगा.
इस मामले में सुनवाई करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया –सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस तरह के मामलों में अब कोई ऑटोमैटिक गिरफ्तारी नहीं होगी. इतना ही नहीं गिरफ्तारी से पहले आरोपों की जांच जरूरी है. गिरफ्तारी से पहले जमानत दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि कोई आरोपी व्यक्ति सार्वजनिक कर्मचारी है, तो नियुक्ति प्राधिकारी की लिखित अनुमति के बिना, यदि व्यक्ति एक सार्वजनिक कर्मचारी नहीं है तो जिला के वरिष्ठ अधीक्षक की लिखित अनुमति के बिना गिरफ्तारी नहीं होगी. कोर्ट ने कहा कि ऐसी अनुमतियों के लिए कारण दर्ज किए जाएंगे और गिरफ्तार व्यक्ति व संबंधित अदालत में पेश किया जाना चाहिए. मजिस्ट्रेट को दर्ज कारणों पर अपना दिमाग लगाना चाहिए और आगे आरोपी को तभी हिरासत में रखा जाना चाहिए जब गिरफ्तारी के कारण वाजिब हो. यदि इन निर्देशों का उल्लंघन किया गया तो ये अनुशासानात्मक कार्रवाई के साथ साथ अवमानना कार्रवाई के तहत होगी. कोर्ट ने कहा कि संसद ने कानून बनाते वक्त ये नहीं सोचा था कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा.सुप्रीम कोर्ट ने माना इस एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है और केस दर्ज करने से पहले DSP स्तर का पुलिस अधिकारी प्रारंभिक जांच करेगा. इस मामले में अग्रिम जमानत पर भी कोई संपूर्ण रोक नहीं है. किसी सरकारी अफसर की गिरफ्तारी से पहले उसके उच्चाधिकारी से अनुमति जरूरी होगी.
अ नुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले पर सुनाई दे रहीं इक्का-दुक्का नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को अहमियत नहीं दी जानी चाहिए। बेकसूर लोगों की गरिमा और सम्मान की रक्षा के पक्षधर प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति ने फैसले का स्वागत किया है। कुछ नेताओं की प्रतिक्रियाओं पर अवश्य आश्चर्य हुआ। वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केन्द्र सरकार की नाकामी बताते दिखे। आरोप लगाया कि केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कानून के सख्त प्रावधानों के समर्थन में सही ढंग से बात नही रखी। फैसले को लेकर निराश होने का स्वांग करते ऐसे नेता यहां भी वोट बैंक की राजनीति डूबे थे। अजा जजा (अत्याचार निवारण)अधिनियम-1989 के बढ़ते दुरुपयोग को लेकर लंबे समय से चिंता व्यक्त की जा रही थी। दुरुपयोग की सबसे अधिक शिकायतें महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश और कुछ हद तक तमिलनाडु से सुनने में आतीं रहीं। इन राज्यों की सरकारों पर कई बार दबाव बनाया गया कि वे केन्द्र से बात कर कानून के प्रावधानों को नरम करने पर जोर दें। सरकारों का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करने की कोशिशें होतीं रहीं कि सिर्फ बदला लेने या दुर्भावना के चलते शिकायत कर दी जाती हैं। एससी/एसटी कानून के प्रावधान इतने सख्त रहे हैं कि पुलिस आंख बाद कर आरोपी के विरूद्ध कार्रवाई करने टूट पड़ती है। पुलिस के समक्ष आरोपों की सत्यता की पुष्टि करने के बहुत सीमित विकल्प बताए जाते रहे हैं। कानून के दुरुपयोग के कारण पिछले लगभग तीन दशक के दौरान बड़ी संख्या में बेकसूर लोगों ने अपने सम्मान और हितों पर गहरी चोट बर्दाश्त की है। एससी/एसटी एक्ट के सख्त प्रावधानों का खौफ सरकारी और अर्द्धसरकारी दफ्तरों तक में दिखाई देता रहा है। पड़ताल कराई जाए तो ऐसे हजारों मामले देश में निकल आएंगे जिनमे कर्मचारियों और कनिष्ठ अधिकारियों ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सिर्फ सबक सिखाने के मकसद से जाति को आधार और कानून को हथियान बना कर शिकायत कर दी। कल्पना करें कि ऐसी स्थिति में दफ्तर या संस्थान में काम कराना कितना कठिन हो जाता होगा। इकतरफा और बेहद सख्त प्रावधानों के कारण समाज में तनाव पैदा होने की आशंका बनी रहती है। यह प्रश्र स्वाभाविक है कि संसद में जब अनुसूचित जाति अनसूचित जनजाति(अत्याचार निवारण)अधिनियम 1989 को मंजूरी दी गई उस समय किसी भी सांसद ने एक्ट के इकतरफा सख्त बना दिए प्रावधानों पर आपत्ति क्यों नहीं की? क्या किसी भी तत्कालीन सांसद को प्रावधानों की दुरुपयोग की आशंका नहीं हुई थी या वोट बैंक की राजनीति के कारण उन्होंने इसके विरूद्ध मुंह खोलने का साहस नहीं दिखाया। संसद के किसी भी सदस्य ने इस बात पर विचार नहीं किया कि बेकसूर लोगों के हितों और सम्मान की रक्षा कैसे की जा सकेगी? एक वरिष्ठ विधिवेत्ता का मानना है ऐसे मनमाने प्रावधान विधेयक में पेश किए जाने के बाद भी संसद सदस्यों की ओर से आवाज सुनाई नहीं देने के पीछे कारण हमारी संसद में विशेषज्ञों का नहीं होना है। उपर्युक्त अधिनियम को मंजूरी देने वाले तत्कालीन सांसदों में से कितने लोग इस कानून के प्रावधानों को एक सांस में बता सकने में समर्थ होंगे?
इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कानून से वंचित व शोषित समाज को सम्मान के साथ जीने में बहुत बड़ा सहारा मिला है और उत्पीड़न की घटनाओं पर विराम लगाने में काफी मदद भी मिली परंतु वर्तमान में देखने में यह आने लगा कि यह कानून सामान्य वर्ग के लोगों के उत्पीड़न व ब्लैकमेलिंग का हथियार भी बनने लगा। सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख महाराष्ट्र के आए केस से ही साफ हो जाता है कि कुछ गलत मानसिकता के लोग इसका दुरुपयोग समाज को बांटने व लोगों को डराने में कर रहे हैं। राज्य के दो अधिकारियों ने आरक्षित वर्ग के कर्मचारी के काम पर प्रशासनिक टिप्पणी की, जिस पर कर्मचारी ने अपने वरिष्ठों पर इस एक्ट की शिकायत दर्ज करवा दी। यह केवल महाराष्ट्र का मामला नहीं, सामान्यत: सरकारी दफ्तरों में देखा जाता है कि कोई अधिकारी अपने जूनियर आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को उनके कामकाज के बारे में कहने से भी कतराते हैं कि कहीं उसके खिलाफ इस तरह की शिकायत न कर दे। यह क्रम यूं ही चलता रहा तो हमारा प्रशासनिक ढांचा कितनी देर तक ठहर पाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था दी है उससे इन दोनों कारणों से छुटकारा मिलने वाला है। डीएसपी स्तर के सक्षम अधिकारी द्वारा केस फाइल करने से जहां केस में तथ्यात्मक मजबूती आएगी वहीं प्रारंभिक जांच में झूठी शिकायतें स्वत: निरस्त हो जाएंगी। जहां तक आरोपी को अग्रिम जमानत देने की बात है वह उसका संवैधानिक अधिकार है। जमानत जब हत्या व बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में दी जा सकती है तो इस कानून में क्यों नहीं मिलनी चाहिए? न्यायालय के निर्णय पर बेवजह हल्ला मचाने वालों को समझना चाहिए कि किसी कानून को समाप्त नहीं किया गया बल्कि यह सामयिक सुधार का प्रयास है। हर कानून में समय-समय तत्कालिक जरूरतों के अनुसार बदलाव व सुधार हुए हैं। अदालत के इस कदम से जहां इस कानून को लेकर समाज में भय का वातावरण समाप्त होगा वहीं यह और भी प्रभावी रूप में सामने आएगा। वंचितों व शोषितों की उन सच्ची व वाजिब शिकायतों का निपटारा होगा जो आज फर्जी केसों के बीच दबी कराह रही हैं।
यह कानून समाज के बंधुत्व और एकीकरण के सवेधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए अधिनियमित किया गया
है और इसका परिणाम जातिवाद को स्थिर करना नहीं होना चाहिए , जो सामाजिक और सवेधानिक मूल्यों के
एकीकरण पर प्रतिकूल असर डाल सकता है । हालांकि , किसी भी जाती के व्यक्ति द्वारा एकपक्षीय आरोप ,एक
स्वंतत्र जाँच के बिना व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित करने के लिए प्रयाप्त नहीं माना जा
सकता है। एक निर्दोष नागरिक का उत्पीड़न, जाति , धर्म के बावजूद , सविधान के द्वारा दिए गए अधिकारों के
खिलाफ है और न्यायालय को इस तरह के अधिकारों को लागू करना चाहिए ।