के के शर्मा :
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
समाज शब्द संस्कृत के दो शब्दों सम् एवं अज से बना है। सम् का अर्थ है इक्ट्ठा व एक साथ अज का अर्थ है साथ रहना। इसका अभिप्राय है कि समाज शब्द का अर्थ हुआ एक साथ रहने वाला समूह। समाज एक से अधिक लोगों के समुदाय को कहते हैं जिसमें सभी व्यक्ति मानवीय क्रियाकलाप करते है। मानवीय क्रियाकलाप में आचरण, सामाजिक सुरक्षा और निर्वाह आदि की क्रियाएं सम्मिलित होती है। समाज लोगों का ऐसा समूह होता है जो अपने अंदर के लोगों के मुकाबले अन्य समूहों से काफी कम मेलजोल रखता है। किसी समाज के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति एक दूसरे के प्रति परस्पर स्नेह तथा सहृदयता का भाव रखते हैं। दुनिया के सभी समाज अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए अलग-अलग रस्मों-रिवाज़ों का पालन करते हैं।व्यक्तियों के समूह को मिलाकर एक परिवार बनता है और उन परिवारों से मिलकर एक समाज बनता है और उन समाजों से मिलकर एक राज्य बनता है और उन राज्यों के मिलने से एक राष्ट्र बनता है और उन राष्ट्रों के मिलने से एक विश्व का निर्माण होता है।,
श्रीरामचरित मानस के एक प्रसंग में श्रीराम ने परिवार और समाज का महत्व बताया है। जब रावण का वध करके श्रीराम अयोध्या लौटे और भरत ने श्रीराम को राजकाज समर्पित किया। इसके बाद एक दिन श्रीराम एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने तीनों भाई भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जीवन में देश, समाज और परिवार का महत्व समझा रहे हैं।श्रीराम अपने भाइयों को समझा रहे हैं कि समाज और राष्ट्र का हित सबसे बड़ा है। हर परिवार को उसके बारे में सोचना चाहिए। जब तक हम दूसरे की पीड़ा और व्यथा नहीं समझेंगे, राष्ट्र का विकास संभव नहीं है।
श्रीराम कहते हैं – परहित सरिस धरम नहीं भाई। परपीड़ा सम नहीं अधमाई।। यानी दूसरों के हित और सुख से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई पाप नहीं।
जिस समाज में लोग एक दूसरे के दुःख, दर्द में सम्मिलित रहते हैं, सुख सम्पत्ति को बाँट कर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते हुए स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं उसे देव-समाज कहते हैं।
समाज एक सम्पूर्ण शरीर है और हम सब उसके अंग अवयव हैं। जिस प्रकार शरीर का अस्तित्व अंगों के सहयोग पर निर्भर है, उसी प्रकार सम्पूर्ण शरीर की सहायता से अंग और अवयव भी स्वस्थ रहते हैं। यह दोनों अन्योन्याश्रित हैं। पारस्परिक सहयोग के अभाव में इन दोनों का ही अस्तित्व शंका में पड़ जायेगा।व्यक्ति का समाज के प्रति वही दायित्व है जो अंगों का सम्पूर्ण शरीर के प्रति। यदि शरीर के विविध अंग किसी प्रकार स्वार्थी अथवा आत्मास्तित्व तक ही सीमित हो जायें तो निश्चय ही सारे शरीर के लिए एक खतरा पैदा हो जाए।
व्यक्ति की स्वार्थपरता सामाजिक जीवन के लिए विष के समान घातक है। जो व्यक्ति सामूहिक दृष्टि से न सोच कर केवल अपने स्वार्थ, अपने व्यक्तिवाद में लगे रहते हैं, वे सम्पूर्ण समाज को एक प्रकार से विष देने का पाप करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा कभी भी शांत और सुखी नहीं रह सकती। शीघ्र ही उसका लोक तो बिगड़ ही जाता है, परलोक बिगड़ने की भूमिका भी तैयार हो जाती है। समाज में व्यक्तिगत भाव का कोई स्थान नहीं है। जिसने शक्ति, समृद्धि, सम्पन्नता अथवा पद प्रतिष्ठा के क्षेत्र में उन्नति तो कर ली है, किन्तु अपनी इन सारी उपलब्धियों को रखता अपने तक ही सीमित है, किसी भी रूप में समाज को उसका लाभ नहीं पहुँचता तो उसकी सारी उपलब्धियां, समृद्धियाँ और सफलताएँ हेय हैं। ऐसे स्वार्थी व्यक्ति का कोई विवेकशील व्यक्ति तो आदर की दृष्टि से देखेगा नहीं, मूढ़ और मतिमन्द लोग भले ही उसको आदर, सम्मान देते रहें।ऐसे संकीर्ण एवं स्वार्थपरायण व्यक्ति ही समाज के शोषक, शत्रु और अहित-चिन्तक कहे जाते हैं। वे अपने साधनों के बल पर समाज का अधिकाधिक शोषण करते हैं और इससे गरीबी, द्वेष, ईर्ष्या और कुत्सा का विष फैलता है। ऐसे व्यक्ति समाज के अस्वस्थ अंग होते हैं जो अपने दोष से सारे समाज के स्वास्थ्य और सुख चैन पर घातक आघात किया करते हैं। ऐसे असामाजिक एवं असहयोगी लोगों की जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है।
ऐसे समाज विरोधी स्वार्थियों की भर्त्सना करते हुए वेद में कहा गया है-
“मोघमन्नं विदन्ते अप्रचेता” सत्यं ब्रवीमि वद इति स तस्य, न आर्यमणं पुष्यति नोसखयं, केवलाघो भवति केवला दी।”
स्वार्थ पूर्ण संकीर्ण मनोवृत्ति वाले व्यक्ति के पास का संग्रहित धन, धन संग्रह नहीं किया, वरन् अपनी मृत्यु को ही संग्रह कर लिया है। जो अपने भाई, बहन को कुछ नहीं देता, जो अपना ही ध्यान रखता है, अपने लिए ही संग्रह करता है, वह केवल पाप रूप है, चोर है।
सारा धन, सारा वैभव और सारी विभूतियाँ जो किसी मनुष्य के पास आती हैं, सब समाज से ही आती है, कहीं आकाश से सहसा नहीं टपक पड़तीं। यदि सर्वथा सत्य कहा जाए तो- तो कहना होगा कि जिसके पास जो कुछ भी है, उसमें उस व्यक्ति का कुछ नहीं होता, वह सब समाज की ही सम्पत्ति होती है। मनुष्य जब पैदा होता है तब वह अपने साथ कुछ भी नहीं लाता और जब संसार से जाता है तब भी साथ कुछ नहीं ले जाता। समाज की सम्पत्ति समाज के ही पास छूट जाती है। जन्म लेने के समय बच्चा नितान्त असहाय एवं असमर्थ होता है। उसकी रक्षा और वृद्धि, परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में समाज द्वारा ही की जाती है। समर्थ होकर वह समाज की सहायता से उन्नति करता और समृद्ध बनता है।
,अनेक बार अनेक लोग व्यक्तिवाद से प्रेरित होकर यह दावा करने का साहस करने लगते हैं कि उन्होंने अपना विकास अपने प्रयत्न एवं पुरुषार्थ के बल पर किया है- समाज ने उनकी कोई सहायता नहीं की, बल्कि पीछे खींचने कह ही प्रयत्न किया है। ऐसे लोग, शायद कुछ ऐसे लोगों को ही समाज समझने की भूल करते हैं, जिन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष सहयोग नहीं दिया होता है। सोचने का यह विचार-कोण समीचीन नहीं। कुछ इने-गिने लोग ही समाज नहीं होते। समाज एक विशाल और व्यापक संस्था है। पूरा समाज जिसका असहयोग करने लगता है उसका विकास तो दूर, जीना भी दूभर हो जाता है।
ऐसे लोगों को अपने विचार-कोण बदल कर यह समझना चाहिये कि व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व समाज से पृथक कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार किसी वृक्ष के फल मनुष्यों द्वारा की गई उसकी सेवा और सुरक्षा का ही परिणाम होता है, उसी प्रकार मनुष्य की सारी सफलता भी समाज की कृपा का ही परिणाम होता है। यद्यपि समाज के अंतर्गत वे भी आते हैं, तथापि माता-पिता को यदि छोड़ भी दिया जाये तब भी मनुष्य के विकास में समाज का बहुत हाथ रहता है। मनुष्य जिसके बीच बढ़ता, पढ़ता और अनुभव प्राप्त करता है वह सब समाज ही तो होता है।
वह जो कुछ सीखता समाज में सीखता है और जो कुछ पाता है समाज से पाता है। कोई भी वस्तु जो जीवन विकास के लिए आवश्यक होती है, समाज के सामूहिक प्रयत्न द्वारा ही बनाई जाती है। उदाहरण के लिए अन्न ही ले लीजिए- इसे सभी लोग नहीं उगाते लेकिन उपयोग सभी लोग करते हैं। अन्न का उत्पादन किसान किया करते हैं। किन्तु वे जिन साधनों और उपकरणों से कृषि का काम करते हैं, उनका उत्पादन अन्य लोग किया करते हैं। एक हल बनने में ही न जाने कितने लोगों का श्रम तथा मस्तिष्क लगा करता है, तब कहीं जाकर वह तैयार हो पाता है।
व्यक्ति तथा समाज वस्तुतः एक ही वस्तु हैं। दोनों का विकास दोनों पर समान रूप से निर्भर है। कोई एक बात पूरे समाज से एक साथ कह सकना सम्भव नहीं, इसलिए वह उपायों द्वारा व्यक्तियों से ही कही जाती है। व्यक्ति को सामाजिक बनने को कहने का अर्थ यही है कि वह बात पूरे समाज से कही गई है। व्यक्ति यदि आपको सुधार कर समाज अर्थात् दूसरे लोगों का हितैषी और सहयोगी बन जाय तो यह समझना चाहिये कि पूरा समाज ही वैसा बन गया। व्यक्तिवादी बन कर केवल स्वार्थ में ही लगे रहना असामाजिकता है। इससे व्यक्ति तथा समाज दोनों की हानि एवं अकल्याण होता है। इसी अमंगल को बचाने के लिए मनुष्य को स्वार्थी नहीं परमार्थी और व्यक्तिवादी से सामाजिकवादी बन कर लोकहित के काम करते ही रहना चाहिए।
सभ्य समाज वह है जिसमें हर नागरिक को अपना व्यक्तित्व विकसित करने एवं प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए समान रूप से अवसर मिले। इस मार्ग में जितनी भी बाधायें हों उन्हें हटाया जाना चाहिए। लिंग भेद के कारण स्त्रियों को, जाति भेद के कारण शूद्रों को, आर्थिक असमानता के कारण गरीबों को मन मारकर आगे बढ़ने की क्षमता होते हुए भी विवश रुक बैठना पड़ता है। हमें सामाजिक न्याय का ऐसा प्रबन्ध करना होगा कि हर व्यक्ति निर्बाध गति से प्रगति का समान अवसर प्राप्त कर सके। धन का वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि किसी को न तो मुफ्तखोरी या आलस्य में पड़े-पड़े गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा मिले और न कोई श्रम की चक्की में पिस जाने पर भी भोजन वस्त्र से वंचित रह जाया करे। शोषक और शोषित का वर्ग भेद मिटना चाहिए और हर व्यक्ति को अपने श्रम का उचित लाभ मिलने की सुविधा रहनी चाहिए। ऐसा समाज ही सभ्य समाज कहलाने का अधिकारी बन सकता है।
पर आज हम देखते हैं कि एक समाज को किसी जाति विशेष से जोड़ दिया गया। परन्तु वास्तव में समाज तो ऊंच-नीच, भेदभाव, राग-द्वेष से बहुत दूर था। क्योंकि वह समुदाय एक दूसरे को समझता था और एक दूसरे के सुख दुख में साथ देता था । वह अपने साथ रहने वालों को समझते थे। समाज एक ऐसे लोगों को दल होता था जो उसमें रहने वाले हर एक व्यक्ति को अपना समझता था। तब आप समझ सकते हैं कि वहाँ किस तरह का खुशनुमा वातावरण निर्मित होता होगा ।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने युगों पहले “वसुधैव कुटुम्बकम् …” के द्वारा सारी दुनिया को एक परिवार माना। “सर्वे भवन्तु सुखिनः …” की भावना में सभी का कल्याण निहित है। “‘वसुधैव कुटुम्बकम् …” के सूत्र द्वारा भारतीय मनीषियों ने जिस उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना है। यह देश-कालातीत अवधारणा है और पारस्परिक सद्भाव, अन्तः विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी है।यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात करना होगा। इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है। यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।