*डा. देविन्द्र सिंह : डा. विजय माल्य सन् 2002 से भारत के लोकतन्त्रा की सर्वोच्च संस्था संसद के ऊपरी सदन के सदस्य है जिसका गहरा सम्बन्ध् उनकी वित्तीय अनियम्त्ताअे से है। हम यह कह सकते है वह एक अमीर व्यापारी होने की बजह से संसद में पहुँचे या फिर संसद में पहुँच कर वह ऊपर के दर्जे के व्यापारी बने। इनमें से कोई भी बात सच हो सकती है लेकिन सब परिस्थितियों में एक निष्कर्ष निकालना अति सरल है कि व्यापार-राजनिति-भ्रष्टाचार में गहरा नाता है इनका संस्थाकरण हो चुका है और सभी दूसरी संस्थाओं पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ रहा है। इस बात का स्पष्टीकरण यह है कि लगभग 2002 से लेकर 2014 तक सतरह भारतीय बैकों ने डा. विजय मालय को व्यापार चलाने के लिये ट्टण ऊधर दिया। बैकों ने चल-अचल सम्पत्ति के अलावा व्यापारिक नाम और साख पर भी ऊधर दिया। सभी बैकों ने ऋण अपने नियमों को ताक पर रख कर ही ऊधर दिया। सब बैकों ने लगभग एक प्रकार से ही व्यक्ति विशेष के लिये नियम तोड़ें। यह संस्थागत भ्रष्टाचार का प्रमाण।
जब डा. विजय माल्या 3 मार्च को देश छोड़कर चले गये उसके बाद उनके बारे में सब प्रकार की चर्चा सभी स्तर पर होने लगी हैै। बैंकों ने ऋण वापसी के लिये प्रक्रिया की बात करनी शुरू कर दी है और इसकी वजह से पुलिस, न्यायलय, मिडिया, संसद सब हरकत में आ गये और अपने-अपने तरीके से इस घटना का वर्णन कर रहे है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर भारत के कानून पर अपने अनुभव के आधर पर विश्वास है कि कानूनी प्रक्रिया जरूर काम करेगी पर समय सीमा के अन्दर निष्कर्ष पर पहुँचेगी ऐसा कहना और मानना बड़ा कठिन है। असम्भव नहीं है लेकिन सम्भव बनाना मुश्किल है।
इस सारे प्रकरण में जो एक विषय उभर कर आता है वह यह कि भ्रष्टाचार किसका मुद्दा है? चुनाव का या अन्दोलन का या चुनाव से पहले होने वाले अन्दोलनों का? क्या संस्थागत भ्रष्टाचार से निपटना संसद का दायित्य नही है? और इस सवाल का जवाब हम देश हित में हां मान ले तो स्वाभावविक तौर पर देश का नागरिक यह संासदों से सवाल पूछ सकता है या पूछ रहा कि वह कौन-सी वाध है जिसकी वजह से संसद या यूं कहे राज्य सभा डा. विजय माल्या पर कार्यवाही नहीं कर सकती है?
सविंधन के अनुच्छेद 105 में संसद के सदनों को तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ और विशेषाध्किारों का प्रावधन किया गया है। जिसके तहत संसद और सांसद अपने विशेषाध्किारों के हनन के लिये सजा सुना सकते है। अनुच्छेद 194 में ऐसे विशेषाध्किार और शक्तियों का प्रावधन राज्यों की विधनसभा और विधयकों की भी प्राप्त है।
ऐसे प्रश्न का जवाब देने के लिये हमें पिछले दशक की घटना से सबक सीखने की जरूरत है। सन् 2005 में एक निजि टी.वी. चैनल द्वारा ऑपरेशन किया गया जिसमें संसद के तकरीबन बारह सदस्य नकद रूपये लेते हुये गुप्त कैमरे द्वारा पकड़े गये। जब इस घटना को सार्वजनिक रूप से टी.वी. चैनल द्वारा दिखाया गया, तब संसद ने ऐसी घटना को संसद के विशेषाध्किों के हनन के साथ जोड़कर चर्चा की। दोनों ही सदनों ने अपनी-अपनी कमेटीयों का गठन किया और उस कमेटियों ने एक सप्ताह के भीतर अपने ही तरीके से कार्यवाही करते हुये सभी इन संासदों को संसद की सदस्यता समाप्त करने की सिफारिश कर डाली।
इसमें महत्वपूर्ण बात यह थी कि दोनों सदनों ने अपनी-अपनी कमेटीयों की रिपोर्ट को स्वीकार किया और लोक सभा ने दस सदस्यों और राज्य सभा ने दो सदस्यों की सदस्यता को समाप्त करने का अंतिम फैसला लिया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय ने साफ तौर पर कहा कि संसद के पास अपने सदस्यों को निष्काषित करने का अध्किार है और ऐसा कर के संसद ने केवल उचित कार्यवाही ही की है।
यह मामला इसलिये भी रोचक था कि इसमें संसद की प्रतिष्ठा को किसी और ने नहीं बल्कि इसके अपने सदस्यों ने ही दागदार किया था। संसद ने इस पर न केवल सख्त कार्यवाही देते हुये उदाहरण पेश किया बल्कि रिकार्ड समय में कार्यवाही भी की। यह घटना को टी.वी चैनल पर 11 दिसम्बर को दिखाई गई और संसद के आखिरी फैसला 23 दिसम्बर को सुना डाला।
क्या ऐसा डा. विजय माल्य के सम्बन्ध् से निर्णय लेने की एक और पहल राज्य सभा को करनी चाहिये? संविधन और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही इस बात की इजाजत देते हैं। ऐसी पहल करना आज के सम्बन्ध् में संसद और सरकार से अपेक्षित है।
सन 2005 की घटना में सांसदों ने संसद में सवाल पूछने के लिये कुछ नागरिकों से पैसे लिये थे जिनकी रकम हजारों और लाखों में भी और उनकी सब सांसदों को एक सबक के तौर पर सदस्यता से वंछित कर देने वाला फैसला देश की संसद ने लिया जिसको कुछ हद तक सरहाया गया और कई माइनों में प्रशंसा भी मिली। लेकिन इस बार रकम कई हजार करोड़ रूपये है। मामला बहुत गम्भीर है।
ऐसे मामले में दूसरी घटना सन् 2007 में पंजाब विधनसभा से सम्बन्ध्ति है। जब कैप्टन अमनिन्दर सिंह को विधनसभा की समिति ने उनकी सदस्यता को समाप्त करने की सिफारिश की। उन पर आरोप यह था कि 2002-07 मुख्यमन्त्राी पद पर रहते हुये उन्होंने कुछ वित्तीय अनिमतायें की और कुछ न्यासों को भूमि का आंवटन नियमों को ताक पर रखकर किया। उनको पंजाब विधनसभा के पूरे कार्यकाल 2007-12 तक सदस्यता से हटा दिया गया। भ्रष्टाचार के विरू( विधनसभा ने बड़ी गम्भीरता दिखाई। हालांकी सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को तकनीकी आधर पर वाद रद्द कर दिया।
इस मामले में जजों की संविधनिक पीठ का यह माना था कि वर्तमान विधनसभा पिछली विधनसभा का लेखा-जोखा नहीं ले सकती और जिन नियमों के उल्लंघन का आरोप कै. अमरिन्द्र सिंह पर लगाया गया था। वह उन पर मुख्यमन्त्राी पद पर होने की वजह से लगाया गया था न कि विधनसभा का सदस्य होने के नाते।
डा. विजय माल्य की घटना से देश में भ्रष्टाचार को लेकर नागरिकों ने फिर से पिछले दशक की तरह ही उदासीनता का महौल है। लोग यह सोचने और मानने पर मजबूर है कि अमीर व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करके भ्रष्टाचार को संस्थागत बना सकता है, और कार्यवाही से भी बच सकता है। ऐसे भ्रष्टाचार युक्त उदासीनता के महौल को छिन्न भिन्न करना राज्य सभा का 2005 की घटना के मध्य नजर और उच्चतम न्यायलय के निर्णय को देखते हुये संविधनिक दायित्व है।
डा. विजय माल्य इस वक्त अपने व्यापार में भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा में है और इससे महत्वपूर्ण बात यह कि वह राज्य सभा के सदस्य भी है। उनका सम्बन्ध् सकुलर/र्ध्मनिरपेक्ष जनता दल से है सन् 2002 से लेकर आज तक वह संसद की कई कमेटीयों के सदस्य रह चुके है जिनमें मुख्य रूप से सुरक्षा, उद्योग, इत्यादि प्रमुख है। अपने पद के दुरूपयोग का यह गम्भीर मामला है। एक सांसद का यह न केवल आंवचिनीय व्यवहार बल्कि बुरा व्यवहार है जो कि अनैतिक, गैर-कानूनी वा गैर संविधनिक है। राज्य सभा की एथिकस कमेटी को इसका संज्ञायान लेना चाहिये और कार्यवाही करनी चाहिये।
राज्य सभा को चाहिये कि वह अपने सदस्य के खिलाफ सदस्यता को समाप्त करने का प्रस्ताव लाये और भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करके यह संदेश न केवल बैंको व पुलिश इत्यादि को दे बल्कि भारत के नागरिकों तक ऐसा दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाना चाहिये कि संसद भ्रष्टाचार को सहन नहीं करेगी।
*लेखक प्रो. देवेंद्र सिंह पंजाब विश्विद्यालय में लॉ डिपार्टमेंट में प्रोफेसर है ।