जीवन में हमारे पास “ पर्याप्त ” हो यह आवश्यक नहीं किन्तु जीवन में “ कुछ ” हो इतना तो किया ही जा सकता है। मानव-जीवन मात्र ‘जीवन को अर्थ’ देने में एवं ‘जीवन के अर्थ’ को समझने में भी गुज़ार दिया जाए तो कम नहीं । सारा प्रयास मनुष्य का मनुष्य बनने में भी लगा मान लिया जाए तो भी यह कार्य किसी हीरे को तराशने से कम नहीं आंका जाना चाहिए। प्रकृति और मानव के पारस्परिक सम्बन्ध में केवल एक ही विमुखता है – प्रकृति में पर्याप्त है और मानव उस पर्याप्त से असंतुष्ट । सरल शब्दों में कहें तो प्रकृति में सब कुछ है और भरपूर मात्रा में है, जैसे कोई भी भौतिक वस्तु की कल्पना आप करेंगे या सूक्ष्म वस्तु की कल्पना आप करेंगे यहाँ तक कि विचार करने की क्षमता जो मनुष्य को प्राप्त है वह क्षमता भी प्रकृति के न होने से समाप्त हो जाएगी । प्रकृति के पास सब कुछ विद्यमान है जबकि मनुष्य इसी “पर्याप्त” से असंतुष्ट है क्योंकि वह चाह कर भी “ सब कुछ ” प्राप्त नहीं कर सकता । यह असंतोष मानव की सीमित-सत्ता का परिचायक भी बन सकता है या फिर एक विकराल रूप लेता हुआ कई नए असंतोषों को कड़ी-दर-कड़ी में बांधता जाता है । जीवन प्रायः इसी रोचक द्वन्द्व पर टिका हुआ है-कि मनुष्य इस असंतोष से अपनी असमर्थता को समझते हुए विनम्रता को ग्रहण करे या अपने में विनम्रता का संचार करते हुए अपने सामर्थ्य को पहचाने ।
‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले’, ‘…….. कहीं ज़मीन तो कहीं आसमां नहीं मिलता’ आदि कुछ ऐसी काव्य-अभिव्यक्तियां हैं जो जीवन मे आए किसी न किसी अभाव से उपजी प्रतीत होती हैं। क्या यह कहना गलत होगा कि ‘अभाव’ शायद व्यक्ति को मांजने का काम करता है या व्यक्ति को निखारता है ? ‘अभाव’ को स्वीकार करना बिल्कुल ऐसा परिदृष्य है जैसी नदी के बहाव के अनुकूल बहना और वह भी गीलेपन से रहित होकर। भारतीय दार्शनिक परम्परा की यह विशेषता मानी जानी चाहिए वह हर प्रकार के अनुभव को ज्ञान का रूप मानती है बस अनिवार्य इतना ही है कि अनुभव में नवीनता का अंश हो नहीं तो वह स्मृति-मात्र है। इसी सन्दर्भ में ‘अभाव’ हमारे अनुभवों में ऐसे ही कुछ नए कणों को जोड़ने का प्रयास करता है। हर अभाव एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करता है, या कहें कि व्यक्ति को ऐसे ज्ञान से सराबोर करता है जिससे व्यक्ति स्वयं को रूपान्तरित समझता है। इस अर्थपूर्ण अभाव को झेलने का नैसर्गिक साहस हम सब में होता है पर मनीषी वही कहलाता है जो शिव के समान हलाहल को अपने भीतर समेटे रखता है। मनुष्य का लक्ष्य चाहे ‘शिव’ होना न भी हो पर जिस ‘सम-भाव’ को जिस ‘शिवता’ को इंगित करने का प्रयास हो रहा है-उतना भर तो हो ही सकता है, यानि इस अभाव की अभिव्यक्ति को ऐसे स्थान पर समेटे रखे जहां से वह हमारे कर्म और मन को प्रभावित न कर सके जैसे शिव विष को सदा कण्ठ में धारण करते हैं ।
‘द्वन्द्व’ में गति है और जीवन भी कुछ द्वन्द्व ही है। प्रत्येक द्वन्द्व एक निर्णय लिए आता है – वह निर्णय , समाधान न भी हो तब भी वह हमें परिवर्तित कर जाता है। जीवन में किसी भी रूप से आए ‘अभाव’ को स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति दीन-हीन बन संकुचित बुद्धि होकर उससे बाहर आने का प्रयास न करे। ‘अभाव’ को स्वीकार करना ‘दैव’ व ‘भाग्य’ को स्वीकार करना नहीं है अपितु अपने से संवाद स्थापित करने जैसा है और यह किसी पुरुषार्थ से कम नहीं हो सकता। अवसाद या कहें दुःख का मूल कारण अपने अभाव , अपने सीमित सामर्थ्य को न स्वीकारने में है । प्रसन्नता का मूल इसके विपरीत पूर्ण क्षमता से कार्य के बाद फल को स्वीकारने में है ।