देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जाती है कि केंद्रीय विद्यालयों में 1964 से हिंदी-संस्कृत में सुबह की प्रार्थना हो रही है जो कि पूरी तरह असंवैधानिक है और इससे हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं और ज्ञान का प्रचार होता है।
क्या इस प्रार्थना से किसी पूजा पद्धति का प्रचार हो रहा है, ऐसा तो कहीं नहीं दिखता। यानी बात सिर्फ भाषा पर आकर फंस जाती है। याचिकाकर्ता विनायक शाह के मुताबिक क्या संस्कृत और हिंदी हिंदुओं की भाषा है? तो क्या उर्दू मुसलमानों की भाषा है? अब अगर हिंदी या संस्कृत का उच्चारण करने से इस्लाम खतरे में पड़ जाता है तो फिर विनायक साहब को इस्लाम की रक्षा करते हुए अपना नाम भी बदल लेना चाहिए क्योंकि विनायक तो गणेश जी को कहते हैं, वह हिंदू देवता हैं, एक हिंदू देवता का नाम अगर कोई मुसलमान या किसी अन्य पूजा पद्धति में यकीन रखने वाला व्यक्ति ले लेगा तो उसका धर्म खतरे में पड़ जाएगा। अगर कोई नास्तिक उनका नाम ले लेगा तो वह आस्तिक हो जाएगा, नहीं? मतलब हद है…
जरा कुछ बिंदुओं पर ध्यान दीजिए…
भारतीय थल सेना का ध्येय वाक्य है, ‘सेवा अस्माकं धर्मः’ यानी सेवा हमारा धर्म है। यह संस्कृत में है। सेना न सिर्फ हमारी रक्षा एवं सुरक्षा के लिए सीमा पर तैनात रहती है बल्कि आपदाओं के समय हमारी मदद भी करती है। अब यदि संस्कृत हिंदू भाषा है तो कभी कोई गैरहिंदू किसी सेना के जवान से मदद ना ले और ना ही सेना में अपने बच्चे को भेजे।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) का ध्येयवाक्य ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ है इसका अर्थ होता है कि शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। यह भी संस्कृत में है और कुमारसंभवम् से लिया गया है। अब एम्स में गैरहिंदू इलाज कराने न जाएं, नहीं तो वे भी हिंदू बन जाएंगे।
केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) का ध्येय वाक्य भी ‘असतो मां सद्गमय’ है, तो वहां भी गैरहिंदू अपने बच्चों को ना पढ़ाएं। IIT हों या IIM, उनके ध्येयवाक्य भी संस्कृत में हैं। तो वहां भी गैरहिंदू अपने बच्चों को ना भेजें।
दिल्ली विश्वविद्यालय (निष्ठा धृति: सत्यम्), बेंगलुरु विश्वविद्यालय (ज्ञानं विज्ञान सहितम्) केरल विश्वविद्यालय (कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा), राजस्थान विश्वविद्यालय, मुम्बई विश्वविद्यालय (शीलवृतफला विद्या), गोरखपुर विश्वविद्यालय, बीएचयू के अलावा उस्मानिया विश्वविद्यालय (तमसो मा ज्योतिर्गमय) इत्यादि में भी अपने बच्चों को ना भेजें, नहीं तो वे हिंदू बन जाएंगे।
सभी गैरहिंदू भारतीय नोटों का इस्तेमाल करना बंद कर दें, क्योंकि उसपर ‘सत्यमेव जयते’ लिखा रहता है, और वह संस्कृत में है। उसे इस्तेमाल करेंगे तो तत्काल प्रभाव से हिंदू बन जाएंगे।
कोई गैरहिंदू लोकसभा का चुनाव न लड़े क्योंकि अगर वह जीत गया तो उसे उसी लोकसभा में बैठना होगा, जिसका ध्येयवाक्य ‘धर्मचक्र प्रवर्तनाय’ है, जोकि संस्कृत में है। इतना ही नहीं, जब वह संसद भवन में गेट नंबर एक से घुसेगा तो वहीं पर उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि गेट नंबर एक पर छंदोपनिषद का श्लोक अंकित है। केन्द्रीय कक्ष के द्वार पर भी संस्कृत का श्लोक ‘अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।’ लिखा है। संसद भवन की लिफ्ट नंबर एक के पास महाभारत का श्लोक लिखा है। और तो और मैं तो कहता हूं कि संसद भी मनुवादी है क्योंकि वहां कि लिफ्ट संख्या 2 के पास मनुस्मृति की सूक्ति लिखी है। इसलिए ऐंटी-मनुवादियों को कोई चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, नहीं तो वह भी मनुवादी हो जाएंगे। मतलब हद है यार…
उच्चतम न्यायालय यानी सुप्रीमकोर्ट का ध्येयवाक्य है, ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ यानी जहां धर्म है, वहां जय (विजय) है। यह महाभारत से लिया गया है। अब कोई गैरहिंदू सुप्रीमकोर्ट ना जाए, क्योंकि एससी तो हिंदूवादी है, क्योंकि उसका ध्येयवाक्य संस्कृत में है और संस्कृत ‘हिंदू’ है, महाभारत ‘हिंदू’ है।
सभी गैरहिंदू दूरदर्शन देखना छोड़ दें क्योंकि उसका ध्येयवाक्य ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’ है, और वह भी संस्कृत में है।
और हां, पुलिस में भी गैर हिंदू ना जाएं, ना ही उनसे मदद की उम्मीद करें क्योंकि यूपी पुलिस का ध्येयवाक्य ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’ है, जोकि गीता से लिया गया है। महाराष्ट्र पुलिस का ध्येयवाक्य ‘सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय’ है, यह भी संस्कृत में है।
इतना ही नहीं, श्रीलंका के कोलंबो विश्वविद्यालय, मोराटुवा विश्वविद्यालय और पेरादेनिया विश्वविद्यालय के ध्येयवाक्य क्रमशः बुद्धि: सर्वत्र भ्राजते, विद्यैव सर्वधनम् और सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् हैं। यानी श्रीलंका में भी हिंदूधर्म के प्रचार का काम व्यापक स्तर पर हो रहा है।
श्रीलंका तक तो तब भी ठीक है, जरा इंडोनेशिया का सोचिए, वह हो मुस्लिम देश है। वहां की जलसेना का ध्येयवाक्य ‘जलेष्वेव जयामहे’ है, वहां की वायुसेना की एक एक स्पेशल यूनिट Paskhas का ध्येय वाक्य ‘कर्मण्यै वाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन’ है।
इस्लाम की पूजा पद्धति का नाम कुरान के मुताबिक सलात है लेकिन मुसलमान इसे नमाज़ कहते हैं। नमाज़ शब्द संस्कृत धातु नमस् से बना है। इसका पहला उपयोग ऋगवेद में हुआ है और अर्थ होता है– आदर और भक्ति में झुक जाना। इसी धातु से नमस्ते और नमस्कार भी निकला है। अब नमाज पढ़ना बंद कर दो। सूर्य को हिंदू देवता मानते हैं, तो उससे रोशनी लेना बंद कर दो। चांद को देवता मानते हैं और इस्लाम की उत्पत्ति के पहले से मानते हैं तो उसे देखकर ईद मनाना बंद कर दो… और गिनाऊं?
ये सारे काम कोई नहीं कर पाएगा, और करना भी नहीं चाहिए क्योंकि भाषा, संस्कृति, ज्ञान, ईश्वर, प्रकृति, ये सारी चीजें मनुष्य के अधिकार एवं अहंकार क्षेत्र से बाहर की चीजें हैं। फिर प्रार्थना पर इतना बवाल क्यों? बस उन्हें मीडिया में थोड़ी जगह चाहिए और भारत के मूल में बसे आस्तिक तत्व को मिटाकर उसे नास्तिक बनाकर भारत की हत्या करने की साजिश को साकार जो करना है…