“भारत विविधताओं का देश है फिर भी हमारी एकता ही हमारी अखण्ता का कारन, ऐसा इसलिए, क्योंकि हमें हमारी संस्कृति से विविधता और भेद के बीच के अंतर का ज्ञान उत्तरदान में प्राप्त हुआ है।
…पर पता नहीं क्यों, आज के इस ‘तथाकथित’ विकास के दौड़ में हम यह भूल गए हैं की प्रगति सहयोग से होती है स्पर्धा से नहीं, तभी, जिन्हें एक दुसरे के पूरक होना था वो आज एक दुसरे के प्रतिस्पर्धी बन गए हैं, बात समाज में व्यक्ति की करें या राष्ट्रीय पटल पर राज्यों की, परिस्थितियां एक है, जिसका दोषी सामाजिक मानसिकता की विकृति नहीं तो और कौन है ?
जिनकी निष्ठां विभाजित है वह समूह अराष्ट्रीय है; केवल कानून बनाने से सामरिक समरसता का निर्माण नहीं हो सकता, ऐसे सामाजिक और सरकारी प्रयास भी करने होंगे जो समाज में समरसता के भाव का केवल सैद्धान्तिक ही नहीं बल्कि व्यबहारिक रूप से संचार करे। यह तभी संभव है जब यवस्था प्रणाली के कर्णधार समाज की विविधताओं से अधिक उसकी एकता को महत्वपूर्ण मानें और उसके आधार पर ही योजनाओं का निर्माण करें। इस दृष्टि से समजिक नेतृत्व का दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है और नेता के पात्र की भूमिका निर्णायक।
राष्ट्र के उज्जवल भविष्य की आधारशिला उसका जागृत, अनुसाशित एवं सुसंगठित सामर्थ्य ही है जो किसी भी बाजारवाद या विदेशिनिवेश से संभव ही नहीं; इसके लिए हमें सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर एक साथ काम करने की आवश्यकता होगी जिससे उनके बुनियादी ढांचों में मूलभूत परिवर्तन कर समाज को भविष्य की सुरक्षा और वर्तमान की समृद्धि के प्रति आश्वस्त किया जा सके।
यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जब समाज ही असुरक्षित, पीड़ित और चिंतित होगा तो वहां व्यक्ति में राष्ट्रीयता की भावना का सही अर्थों में विकास संभव ही नहीं और तब आकांक्षएं, स्वार्थ और लोभ के प्रभाव में राजनीती का राष्ट्रीयता के भाव पर हावी होना स्वाभाविक है।
धर्म ही समाज निर्माण का आधार है क्योंकि धर्म वही होता है जो बुद्धि के तार्किक क्षमता द्वारा समय के सन्दर्भ में सृष्टि के व्यापक हित में सही सिद्ध किया जा सके; चूँकि समय गतिशील है इसलिए सन्दर्भ के परिदृश्य के परिवर्तन से समयानुसार आवश्यकता अनुरूप धर्म की व्याख्या में परिवर्तन भी अपरिहार्य है;
न केवल अहंकार रहित आत्म समर्पण की भावना से प्रचंड मनोबल पैदा होता है बल्कि मनुष्य अपनी इक्षा शक्ति से व्यक्तिगत जीवन में नर से नारायण बन सकता है और इस दृष्टि से समाज में व्यक्तिगत विवेक के विकास के लिए विद्या के ज्ञान की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
गत नौ दशकों से संघ और स्वयंसेवक समाज में समर्पित रूप से काम कर रहे हैं क्योंकि संगठन से हमारा अर्थ है व्यक्ति और समाज के बीच आदर्श सम्बन्ध और जब तक यह स्थापित नहीं हो जाता भारत अपने परम वैभव को नहीं प्राप्त कर सकता।“