के के शर्मा, बीकानेर : तुर्क कहासी मुखपती, इणू तन सूं म,।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥1 ॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण ॥2 ॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सुं वाद ॥3 ॥
महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासक और एक वीर योद्धा थे जिन्होंने कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नही की | उनके जन्म दिवस “महाराणा प्रताप जयंती ” हो हर वर्ष जयेष्ट शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है | महाराणा प्रताप उदयपुर के संस्थापक उदय सिंह II और महारानी जयवंता बाई के जयेष्ट पुत्र थे | उनका जन्म सिसोदिया कुल में हुआ था | महाराणा प्रताप उनके पच्चीस भाइयो में सबसे बड़े थे इसलिए उनको मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया गया | वो सिसोदिया राजवंश के 54वे शाषक कहलाते है |महाराणा प्रताप को बचपन में ही ढाल तलवार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा क्योंकि उनके पिता उन्हें अपनी तरह कुशल योद्धा बनाना चाहते थे | बालक प्रताप ने कम उम्र में ही अपने अदम्य साहस का परिचय दे दिया था | जब वो बच्चो के साथ खेलने निकलते तो बात बात में दल का गठन कर लेते थे | दल के सभी बच्चो के साथ साथ वो ढाल तलवार का अभ्यास भी करते थे जिससे वो हथियार चलाने में पारंगत हो गये थे |
1567 में जब राजकुमार प्रताप को उत्तराधिकारी बनाया गया उस वक़्त उनकी उम्र केवल 27 वर्ष थी और मुगल सेनाओ ने चित्तोड़ को चारो और से घेर लिया था | उस वक़्त महाराणा उदय सिंह मुगलों से भिड़ने के बजाय चित्तोड़ छोडकर परिवार सहित गोगुन्दा चले गये| वयस्क प्रताप सिंह फिर से चित्तोड़ जाकर मुगलों से सामना करना चाहते थे लेकिन उनके परिवार ने चित्तोड़ जाने से मना कर दिया |,
गोगुन्दा में रहते हुए उदय सिंह और उसके विश्वासपात्रो ने मेवाड़ की अस्थायी सरकार बना ली थी | 1572 में महाराणा उदय सिंह अपने पुत्र प्रताप को महाराणा का ख़िताब देकर मृत्यु को प्राप्त हो गये | वैसे महाराणा उदय सिंह अपने अंतिम समय में अपनी प्रिय पत्नी रानी भटियानी के प्रभाव में आकर उनके पुत्र जगमाल को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे | महाराणा उदय सिंह के म्रत्यु के बाद जब उनके शव को श्मशान तक ले जाया जा रहा था तब प्रताप भी उस शवयात्रा में शामिल हुए थे जबकि परम्परा के अनुसार राजतिलक के वक़्त राजकुमार प्रताप को पिता के शव के साथ जाने की अनुमति नहीं होती थी बल्कि राजतिलक की तैयारी में लगना पड़ता था | प्रताप ने राजपरिवार की इस परिपाटी को तोडा था और इसके बाद ये परम्परा कभी नहीं निभायी गयी |
प्रताप ने अपने पिता की अंतिम इच्छा के अनुसार उसके सौतेले भाई जगमाल को राजा बनाने का निश्चय किया लेकिन मेवाड़ के विश्वासपात्र चुंडावत राजपूतो ने जगमाल के सिंहासन पर बैठने को विनाशकारी मानते हुए जगमाल को राजगद्दी छोड़ने को बाध्य किया | जगमाल सिंहासन को छोड़ने का इच्छुक नहीं था लेकिन उसने बदला लेने के लिए अजमेर जाकर अकबर की सेना में शामिल हो गया और उसके बदले उसको जहाजपुर की जागीर मिल गयी | इस दौरान राजकुमार प्रताप को मेवाड़ के 54वे शाषक के साथ महाराणा का ख़िताब मिला |
1572 में प्रताप सिंह मेवाड़ के महाराणा बन गये थे लेकिन वो पिछले पांच सालो से चित्तोड़ कभी नहीं गये | उनका जन्म स्थान और चित्तोड़ का किला महाराणा प्रताप को पुकार रहा था | महाराणा प्रताप Maharana Pratap को अपने पिता के चित्तोड़ को पुन: देख बिना मौत हो जाने का बहुत अफ़सोस था | अकबर ने चित्तोड़ पर तो कब्जा कर लिया था लेकिन मेवाड़ का राज अभी भी उससे दूर था | अकबर ने कई बार अपने हिंदुस्तान के जहापनाह बनने की चाह में कई दूतो को राणा प्रताप से संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए भेजा लेकिन हर बार राणा प्रताप ने शांति संधि करने की बात कही लेकिन मेवाड़ की प्रभुता उनके पास ही रहेगी |
सबसे अंतिम बार अकबर ने उसके साले और सेनापति मान सिंह को राणा प्रताप के पास भेजा | महाराणा प्रताप मान सिंह को देखकर क्रोधित होकर बोले कि “एक राजपूत अपने राजपूत भाइयो को समर्पण की बात कह रहा है ” और राजा मान सिंह को लज्जित कर वापस भेज दिया |अब अकबर को समझ में आ गया था कि महाराणा प्रताप कभी समर्पण नही करेंगे इसलिए उन्होंने अपनी सेना को मेवाड़ पर कुच करने के लिए तैयार किया |
1573 में संधि प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अकबर ने मेवाड़ का बाहरी राज्यों से सम्पर्क तोड़ दिया और मेवाड़ के सहयोगी दलों अलग थलग कर दिया जिसमे से कुछ महाराणा प्रताप के मित्र और रिश्तेदार थे | अकबर ने चित्तोड़ के सभी लोगो को प्रताप की सहायता करने से मना कर दिया | अकबर ने राणा प्रताप के छोटे भाई कुंवर सागर सिंह को विजयी क्षेत्र पर राज करने के लिए नियुक्त किया लेकिन सागर ने अपनी मातृभूमि से कपट करने के बजाय मुगल दरबार में कटार से आत्महत्या कर ली | राणा प्रताप का छोटा भाई शक्ति सिंह मुगल सेना में था और अपने भाई को अकबर के विचारो से अवगत करवाया |
महाराणा ने मुगलों से सामना करने के लिए अपनी सेना को सचेत कर दिया | प्रताप ने अपनी सेना को मेवाड़ की राजधानी कुम्भलगढ़ भेज दिया | उसने अपने सैनिको को अरावली की पहाडियों में चले जाने की आज्ञा दी और दुश्मन के लिए पीछे कोई सेना नही छोडी | महाराणा युद्ध उस पहाडी इलाके में लड़ना चाहते थे जिसके बारे में मेवाड़ सेना आदि थी लेकिन मुगल सेना को बिलकुल भी अनुभव नही था | अपने राजा की बात मानते हुए उनकी सारी सेना पहाडियो की ओर कुच कर गयी | अरावली पहाडियों पर भील भी राणा प्रताप की सेना के साथ हो गये |
महाराणा प्रताप खुद जंगलो में रहे ताकि वो जान सके कि स्वंत्रतता और अधिकारों को पाने के लिए कितना दर्द सहना पड़ता है | उन्होंने पत्तल में भोजन किया , जमीन पर सोये और दाढी नही बनाई | दरिद्रता के दौर में वो कच्ची झोपड़ियो में रहते थे जो मिटटी और बांस की बनी होती थी | मुगल सेना ने मेवाड़ को दिल्ली से सुरत तक चारो ओर से घेर लिया था | उनकी सेना के कुछ सैनिको को हल्दीघाटी के सारे मार्गो का अनुभव था तो उनके निर्देशनुसार उदयपुर में दाखिल होने का एकमात्र रास्ता उत्तर में था | अकबर की सेना सेनापति मानसिंह और कुछ कुशल मुगल लडाको के साथ मांडलगढ़ पहुच गयी और दुसरी तरफ महाराणा की सेना में झालामान , डोडिया भील ,रामदास राठोड और हाकिम खा सुर जैसे शूरवीर थे | मुगल सेना के पास कई तोंपे और विशाल सेना थी लेकिन प्रताप की सेना के पास केवल हिम्मत और साहसी जांबाजो की सेना के अलावा कुछ भी नही था |
1576 में 20000 राजपूतो और मुगल सेना के 80000 सैनिको के बीच हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हो गया | उस समय मुगल सेना की कमान अकबर के सेनापति मान सिंह ने संभाली थी | महाराणा की सेना मुगलों की सेना को खदेड़ रही थी | महाराणा प्रताप की सेना तो पराजित नही हुयी लेकिन महाराणा प्रताप स्वयं मुगल सैनिको से घिर गये थे | महाराणा प्रताप के बारे में कहा जाता है कि उनके भाले का वजन 80 किलो और कवच का वजन 72 किलो हुआ करता था और इस तरह उनके भाले ,कवच , ढाल और तलवारों को मिलाकर कुल 200 किलो का वजन साथ लेकर युद्ध करते थे तो सोचो कि किस तरह वो इतना भार लेकर युद्ध करते थे |ऐसा कहा जाता है इस वक़्त राणा प्रताप के हमशक्ल भाई शक्ति सिंह ने प्रताप की मदद की | एक दुसरी दुर्घटना में महाराणा का प्रिय और वफादार घोडा चेतक प्रताप की जान बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया |युद्ध समाप्त हो गया था और इस युद्ध के बाद अकबर ने कई बार मेवाड़ को हथियाने की कोशिश की लेकिन हर बार पराजित हुआ | महाराणा प्रताप किसी तरह चित्तोड़ पर फिर से कब्ज़ा पाने की कोशिश में लगे हुए थे लेकिन मुगलों के लगातार आक्रमणों के चलते उनकी सेना काफी कमजोर हो गयी थी और उनके पास सेना को वहन करने के लिए पर्याप्त धन भी नही बचा | मुसीबत के उस समय में उनके एक मंत्री भामाशाह ने उनकी सारी सम्पति राणा प्रताप को सौप दी और वो धन इतना था कि 12 वर्ष तक 25000 सैनिको का भार उठा सके | महाराणा प्रताप अपने साम्राज्य के लोगो को देखकर काफी दुखी हुए और उनकी अकबर से लड़ने की ताकत क्षीण होती जा रही थी |
एक दुसरी घटना में उनको तब बहुत दुःख होता है जब उनके बच्चो के लिए बनी घास की रोटी को कुत्ता चुरा कर ले जाता है | इस घटना ने राणा प्रताप के हृदय को झकझोर कर रख दिया | अब उनको अपने मुगलों के सामने समर्पण ना करने पर संदेह हो रहा था कि उनका निर्णय सही था या गलत | विचारो के इन क्षणों में उन्होंने अकबर को एक पत्र लिखा जिसमे उन्होंने समर्पण करने की बात कही | अकबर के इस पत्र को जब उसके दरबार के पृथ्वीराज चौहान ने पढ़ा तो अकबर ने सार्वजनिक आनन्द का आयोजन किया कि उसके बहादुर दुश्मन ने समर्पण की बात कही |,
साहित्यक जगत में पीथळ के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज बीकानेर के राव कल्याणमल के छोटे पुत्र थे| जिनका जन्म वि.सं. 1606 मार्गशीर्ष वदि 1 (ई.सं. 1549 ता, 6 नवम्बर) को हुआ था। पृथ्वीराज चौहान खुद एक योद्धा और महान महाराणा प्रताप का प्रशंसक था | वह यह पढकर आश्चर्यचकित हो गया और राणा प्रताप के इस निर्णय पर दुखी हो गया | उसने अकबर को बताया कि राणा प्रताप के किसी शत्रु ने प्रताप की छवि को बदनाम करने के लिए जाली पत्र भेजा होग | पृथ्वीराज ने बताया कि वो राणा प्रताप को अच्छी तरह जानते है कि वो अपने जीवन मे कभी समर्पण नही करंगे |पृथ्वीराज ने अकबर से प्रताप को पत्र भेजने की इजाजत माँगी ताकि सत्यता का पता चल सके | पृथ्वीराज ने अपने पत्र में कुछ दोहे लिखकर प्रताप को भेजे जो आज भी पृथ्वीराज की देशभक्ति की मिसाल को बयान करते है।
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण ।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत॥1 ॥
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक’॥2 ॥
आशय- महाराणा प्रतापसिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहे तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे अर्थात् जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना सर्वथा असम्भव है वैसे ही आप (महाराण) के मुख से बादशाह शब्द का निकलना भी असम्भव है|
हे दीवाण (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये|
इस प्रसिद्ध पत्र ने महाराणा को अपना निर्णय बदलने पर मजबूर कर दिया और इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया—
तुर्क कहासी मुखपती, इणू तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥1 ॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण ॥2 ॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सुं वाद ॥3 ॥
आशय- (भगवान) ‘एकलिंगजी’ इस शरीर से (प्रतापसिंह के मुख से) तो बादशाह को तुर्क ही कह्लावेंगे और सूर्य का उदय जहाँ होता है वहां ही पूर्व दिशा में होता रहेगा|।।
ओर महाराणा नेमुगलों के आगे समर्पण करने से मना कर दिया | 1587 में अकबर ने राणा प्रताप के इस जूनून के आगे घुटने टेक दिए और अपनी सेनाओ को पंजाब बुला लिया | प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्षो में शांति से राज किया और मेवाड़ के अधिकतर प्रान्तों को मुक्त किया | उन्होंने उदयपुर और कुम्भलगढ़ पर तो कब्ज़ा कर लिया लेकिन चित्तोड़ पर कब्ज़ा करने में असफल रहे | महाराणा प्रताप को हिन्दू समुदाय की किरण और जीवन कहा जाता था | प्रताप कला के सरक्षक थे और उन्होंने अपने शाषन में पदमावत चरिता और दूसरा अहदा कविताये लिखी थी |उभेश्वर महल , कमलनाथ महल और चावंड महल उनकी स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने है |
अब प्रताप के जीवन की किरने कमजोर होने लगी थी | उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने पुत्र अमर सिंह को सिंहासन पर बिठाया | महाराणा प्रताप कभी चित्तोड़ वापस नहीं जा सके लेकिन वो उसे पान के लिए जीवनपर्यन्त प्रयास करते रहे | जनवरी 1597 को मेवाड़ के महान नायक राणा प्रताप शिकार के दौरान बुरी तरह घायल हो गये और उनकी 56 वर्ष की आयु में मौत हो गयी | उन्होंने म्रत्यु से पहले अमर सिंह को मुगलों के सामने कभी समर्पण ना करने का वचन लिया और चित्तोड़गढ़ पर फिर विजय प्राप्त करने को कहा |
ऐसा कहा जाता है कि राना प्रताप की मौत पर अकबर खूब रोया था कि एक बहादुर वीर इस दुनिया से अलविदा हो गया | उनके शव को 29 जनवरी 1597 को चावंड लाया गया | इस तरह महाराणा प्रताप इतिहास के पन्नो में अपनी बहादुरी और जनप्रियता के लिए अमर हो गये |
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