दशरथ : पेट के बल लेटना पेट पर (औंधे) सोने से रज-तमात्मक त्याज्य वायु शरीर से निकलने के कारण अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण हो पाना , पेट के बल सोने से पेट की रिक्तियों पर दबाव पडता है तथा उसमें विद्यमान सूक्ष्म त्याज्य वायुओं का अधो दिशा में गमन होना प्रारंभ होता है । कभी-कभी छाती की रिक्ति में अनावश्यक वायुओं का दबाव अधिक होने पर ये वायु ऊर्ध्व गमनपद्धति से नाक और मुंह द्वारा भी उत्सर्जित होती हैं । इन रज-तमात्मक त्याज्य वायुओं का देह में वहन होता है ।
इस प्रक्रिया के समय देह बाह्य वायुमंडल से बडी मात्रा में रज-तमात्मक तरंगें ग्रहण करने में अत्यधिक संवेदनशील बनता है । इस मुद्रा में देह के प्रत्यक्ष जडत्वधारी अवयवों की गतिविधियां मंद होती हैं तथा उसके सर्व ओर रिक्तियुक्त वायुमंडल पेट पर आए दबाव से जागृत अवस्था में आता है । इस कारण प्रकृति के अनुसार अवयवों की गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित एवं रिक्तियों में भरी त्याज्य वायुओं की अधो अथवा ऊर्ध्वगामी दिशा में होने वाली रज-तमात्मक गतिविधियों को गति प्राप्त होती है । इस समय देह सूक्ष्म स्तर पर रज-तमात्मक वायु उत्सर्जनात्मक प्रक्रिया में संवेदनशील बनी होती है । इस काल में वायुमंडल तथा पाताल से होने वाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से व्यक्ति को कष्ट होने की आशंका होती है ।
पेट पर (औंधे) सोने से ऊर्ध्व दिशा से और पीठ पर (उत्तान) सोने से मांत्रिकों के लिए अधो दिशा से आक्रमण करना संभव होना :
औंधे सोने से मांत्रिकों के लिए ऊर्ध्व दिशा से आक्रमण करना सहज संभव होता है एवं सीधे सोने से अधो दिशा से आक्रमण करना संभव होता है । जीव के शरीर का पिछला भाग सामने के भाग की अपेक्षा काली शक्ति ग्रहण करने के कार्य में अधिक सक्षम होता है; क्योंकि देह में त्याज्य वायुओं का संक्रमण सामने के भाग की तुलना में पिछले भाग से अधिक मात्रा में होता है । साथ ही सात्त्विक तरंगों का वहन तुलनात्मक दृष्टि से सामने के भाग में अधिक मात्रा में होता है । इसलिए मांत्रिक अधिकतर पीठ की ओर से आक्रमण करने का प्रयास करते हैं ।
इ. पेट के बल सोने से व्यक्ति के मणिपुर चक्र एवं स्वाधिष्ठान चक्र पर इच्छा के वलय निर्मित होते हैं तथा देह के षट्चक्र निष्क्रिय होते हैं । इससे देह में कष्टदायी शक्ति का वहन आरंभ होकर कुंडलिनी शक्ति का वहन असंतुलित हो जाता है
यानी पेट के बल न सोएं