मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून: वैज्ञानिकों का मानना व कहना है कि ब्रह्माण्ड के सभी लोक लोकान्तर परस्पर के आकर्षण व गति से अपने वर्तमान स्वरूप में गतिशील होकर विद्यमान हैं तथा इनका रचयिता, धारण व पालनकर्त्ता कोई नहीं है।
वैज्ञानिकों की इस मान्यता वा शंका का महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के छठें अध्याय के सोलहवें सूक्त के दूसरे मन्त्र का भाष्य करते हुए समाधान कर बताया है कि ईश्वर ही इस ब्रह्माण्ड का रचयिता, धारण कर्त्ता व पालक है। वेद मन्त्र है-‘अवंशे द्यामस्तभायद्बृहन्तमा रोदसी अपृणदन्तरिक्षम्। स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार।।’ इस मन्त्र का भावार्थ करते वह कहते हैं कि कई लोग नास्तिकता को स्वीकार कर यदि ऐसा कहें कि ये लोक लोकान्तर परस्पर के आकर्षण से स्थिर हैं और इनका धारण करने वा रचने वाला कोई नहीं है तो उन के प्रति विद्वान्जन ऐसा समाधान देवें कि यदि सूर्यादि लोकों के आकर्षण से ही सब लोक स्थिति पाते हैं तो सृष्टि के अन्त में अर्थात् जहां कि सृष्टि के आगे कुछ नहीं है, वहां के लोकों का और उन लोकों के अन्य लोकों से आकर्षण के विना आकर्षण होना कैसे सम्भव है? (इसका उत्तर उन वैज्ञानिकों व नास्तिकों के पास नहीं है) अतः इस से सर्वव्यापक परमेश्वर की आकर्षण शक्ति से ही सूर्यादि लोक अपने रूप और अपनी क्रियाओं को धारण करते हैं। ईश्वर के इन उक्त कर्मों को देख व जानकर सृष्टि के रचयिता, आकर्षण शक्ति के स्वामी व धारणकर्त्ता ईश्वर की सभी मनुष्यों को धन्यवादों से प्रशंसा सर्वदा करनी चाहिये।
हम समझते हैं कि महर्षि दयानन्द जी ने नास्तिक वैज्ञानिकों की आकर्षण शक्ति विषयक मान्यता पर उठने वाली शंका को प्रस्तुत कर जो समाधान दिया है, वह वरणीय एवं स्तुत्य है। सभी वैज्ञानिकों को उनके प्रश्न और समाधान पर विचार कर, अन्य समाधान न होने के कारण, इसे स्वीकार करना चाहिये। इसके लिए महर्षि दयानन्द को नमन है।