प्रोफेसर (डॉ.) एस.के. सिंह : आज के यांत्रिक और रासायनिक कृषि युग में जहाँ कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए संकट बन चुका है, वहीं पारंपरिक और जैविक विकल्पों की ओर रुझान तेज़ी से बढ़ रहा है। अग्नियास्त्र एक ऐसा ही प्रभावशाली पारंपरिक जैविक कीटनाशक है, जो प्राकृतिक खेती (जैसे कि जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग – ZBNF) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्रियों से तैयार किया जाता है, जो न केवल कीटों और रोगों को नियंत्रित करता है, बल्कि पौधों की संपूर्ण प्रतिरक्षा प्रणाली को भी सशक्त बनाता है।
अग्नियास्त्र का महत्त्व एवं उपयोगिता
अग्नियास्त्र का उपयोग सदियों से किसान अपने खेतों में विभिन्न कीटों और रोगों के नियंत्रण के लिए करते आए हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूरी तरह से रासायन-मुक्त और प्राकृतिक होता है। इसके उपयोग से न केवल पर्यावरण संरक्षित रहता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता और जैव विविधता भी बनी रहती है।
रोग एवं कीट नियंत्रण में भूमिका
1. प्रभावी कीट प्रतिरोधक
अग्नियास्त्र में प्रयुक्त सामग्री जैसे नीम, मिर्च, और लहसुन में कीटों को दूर रखने वाले प्राकृतिक रसायन मौजूद होते हैं। नीम में उपस्थित Azadirachtin कीटों के जीवन चक्र को बाधित करता है, वहीं मिर्च में मौजूद Capsaicin कीटों के लिए तीव्र जलन उत्पन्न करता है, जिससे वे फसलों से दूर रहते हैं।
2. जीवाणुरोधी एवं फफूंदनाशक गुण
लहसुन में उपस्थित Allicin और गौमूत्र में पाए जाने वाले सूक्ष्म पोषक तत्व कई प्रकार के हानिकारक जीवाणुओं और फफूंदों को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं। इसके नियमित छिड़काव से पौधों की जड़ सड़न, झुलसा, और पत्ती धब्बा जैसी बीमारियों से रक्षा होती है।
3. पौधों की प्रतिरक्षा क्षमता में वृद्धि
गौमूत्र में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश और कई सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं, जो पौधों को मजबूती प्रदान करते हैं और उनके रोग प्रतिरोधक तंत्र को सक्रिय करते हैं।
मुख्य घटक एवं उनके कार्य
अग्नियास्त्र बनाने के लिए जिन सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है, वे सभी अपने-अपने गुणों के लिए जाने जाते हैं:
नीम पत्ती (Azadirachta indica): प्राकृतिक कीटनाशक, अंडों और नवजात कीटों को नष्ट करता है।
हरी मिर्च: कैप्साइसिन की उपस्थिति से कीटों के लिए असहनीय होती है।
लहसुन: एलिसिन जीवाणुरोधी, फफूंदनाशी और कीट प्रतिरोधक है।
गौमूत्र: पौधों को पोषण देने के साथ-साथ कीटनाशी गुण भी प्रदान करता है।
तंबाकू पत्ती: निकोटीन कीटों के स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है।
शिकाकाई/रेठा: प्राकृतिक सर्फेक्टेंट के रूप में कार्य करता है, जिससे घोल पत्तियों पर अच्छी तरह चिपकता है।
बनाने की विधि
सामग्री
नीम की पत्तियाँ – 5 किलो; हरी मिर्च – 500 ग्राम; लहसुन – 500 ग्राम; तंबाकू पत्तियाँ – 250 ग्राम; शिकाकाई या रेठा – 200 ग्राम; गौमूत्र – 5 लीटर; पानी – 10 लीटर
निर्माण प्रक्रिया
नीम, मिर्च, लहसुन और तंबाकू को पीसकर महीन पेस्ट तैयार करें।
इस पेस्ट को 5 लीटर गौमूत्र और 10 लीटर पानी में मिलाकर किसी ढंके बर्तन में रखें।
मिश्रण को 24 घंटे तक छायायुक्त स्थान में रखकर अच्छी तरह से किण्वित होने दें।
अगले दिन इसे सूती कपड़े या छन्नी से छानकर छिड़काव योग्य घोल तैयार करें।
फसल पर छिड़काव के लिए 1 लीटर घोल को 10 लीटर पानी में मिलाएं।
उपयोग के समय ध्यान देने योग्य बातें
सामग्री की गुणवत्ता: सभी सामग्रियाँ ताज़ा, कीट-रहित और रासायन-मुक्त होनी चाहिए।
अनुपात का संतुलन: मिर्च और तंबाकू की अधिक मात्रा से पौधों को जलन हो सकती है।
छिड़काव का उपयुक्त समय: सुबह या शाम को जब धूप हल्की हो, तब छिड़काव करें।
सुरक्षा सावधानियाँ: मिर्च और तंबाकू त्वचा और आंखों में जलन उत्पन्न कर सकते हैं, अतः दस्ताने और मास्क का उपयोग करें।
भंडारण: यदि घोल बच जाए तो इसे कांच या प्लास्टिक के बंद बर्तन में ठंडी व छायायुक्त जगह पर 5-7 दिन तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
पूर्व परीक्षण: पहली बार उपयोग से पहले एक छोटे क्षेत्र पर परीक्षण करें ताकि किसी भी प्रतिकूल प्रभाव का अनुमान लगाया जा सके।
नियमित उपयोग और प्रभावशीलता
अग्नियास्त्र को अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसका नियमित उपयोग अत्यंत आवश्यक है। आमतौर पर हर 7 से 10 दिन के अंतराल पर इसका छिड़काव करना चाहिए। यह कीटों के जीवन चक्र को बाधित करता है और नए संक्रमण से बचाव करता है।
सारांश
अग्नियास्त्र एक शक्तिशाली, कम लागत वाला और पर्यावरण हितैषी कीटनाशक विकल्प है, जो न केवल कीट और रोग नियंत्रण में सहायक है, बल्कि संपूर्ण जैविक खेती प्रणाली के लिए उपयुक्त भी है। यह किसानों को रासायनिक निर्भरता से मुक्त करने और प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यदि इसे स्थानीय परिस्थितियों और फसलों के अनुसार नियमित और संतुलित रूप से प्रयोग किया जाए, तो यह उत्पादकता बढ़ाने में भी मददगार साबित हो सकता है।
(प्रोफेसर (डॉ.) एस.के. सिंह, विभागाध्यक्ष, पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं नेमेटोलॉजी, प्रधान, केला अनुसंधान केंद्र, गोरौल, हाजीपुर , पूर्व प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना, डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार)