डॉ मनीषा शर्मा : सत्ता के कठोर नियमों और सामाजिक रुढ़ियों को तोड़कर अगर किसी ने शासन को ममता के साथ चलाया तो वह थीं रानी अहिल्याबाई होल्कर। आज जब भी महिला सशक्तिकरण, विधवा अधिकार, शिक्षा और सामाजिक न्याय की बात होती है, तो इतिहास के पन्नों से एक नाम उभरकर सामने आता है—देवी अहिल्या, जिनके कार्य आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।
महारानी अहिल्याबाई होल्कर न केवल एक कुशल प्रशासक थीं, बल्कि एक संवेदनशील समाज सुधारक और मातृत्व से परिपूर्ण व्यक्तित्व भी थीं। चौंडी गांव (महाराष्ट्र) से निकलकर महेश्वर के किले तक का उनका सफर एक स्त्री की उस संघर्षगाथा की कहानी है, जिसमें व्यक्तिगत पीड़ा को ताक पर रखकर उन्होंने समाज और राज्य के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।
विधवाओं की पहली संरक्षक
जब विधवाओं को समाज में उपेक्षित और संपत्तिहीन समझा जाता था, तब अहिल्याबाई ने न केवल विधवा पेंशन की शुरुआत की, बल्कि पति की संपत्ति पर विधवा का अधिकार सुनिश्चित कराया। उन्होंने सती प्रथा का विरोध किया, महिलाओं को शिक्षा और रोजगार से जोड़ने के लिए पहल की और पहली बार महिला सेना का गठन किया, जो किसी भी भारतीय महिला शासक द्वारा लिया गया अभूतपूर्व निर्णय था।
धर्म और न्याय की त्रिवेणी
पाखंडी धर्माचार्यों के विरोध और पुरुषप्रधान समाज की रुढ़ियों से टकराकर रानी ने महिला शिक्षा को आगे बढ़ाया और धार्मिक निर्णयों में तार्किक सोच को स्थापित किया। उनका शासन कानून के साथ करुणा और न्याय का संगम था। उन्होंने घाटों, मंदिरों, धर्मशालाओं का निर्माण कराया, लेकिन सामाजिक सुधार को केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं रखा।
युद्ध में शांति की पक्षधर
रानी अहिल्या ने कई बार युद्धों को चतुराई और संवाद से टालने का प्रयास किया। जब पेशवा राघोबा ने मालवा पर चढ़ाई का इरादा किया, तो रानी ने एक ऐतिहासिक पत्र लिखकर न केवल उनका मन बदला बल्कि एक अनावश्यक युद्ध को टाल दिया। उस पत्र में लिखा था, “अगर आप युद्ध करेंगे तो या तो एक विधवा को हराएंगे या उससे हार जाएंगे — दोनों ही हालात पेशवाई की प्रतिष्ठा के लिए नुकसानदेह होंगे।”
फिर भी, जब जरूरत पड़ी तो उन्होंने महिला सेना के साथ युद्धभूमि में उतरने से संकोच नहीं किया। लखेरी, मंदसौर और पानीपत के युद्धों में उन्होंने मराठा सेना का नेतृत्व कर वीरता का परिचय दिया।
सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि
रानी अहिल्या ने माहेश्वरी साड़ी उद्योग को स्थापित किया, जो आज भी सैकड़ों महिलाओं की आजीविका का स्रोत है। उनके द्वारा बनवाए गए मंदिर, घाट और धर्मशालाएं भारत के कोने-कोने में आज भी उनकी सांस्कृतिक दूरदृष्टि की गवाही देते हैं।
मातृत्व का प्रतिमान
राजगद्दी को शिवलिंग को समर्पित कर उन्होंने स्वयं कभी उस पर नहीं बैठा—यह उनकी त्याग की भावना और आध्यात्मिक दृष्टि का प्रतीक था। उन्होंने सत्ता को सेवा का माध्यम बनाया और मातृत्व को राज्य के प्रति अपनी निष्ठा में परिवर्तित कर दिया।
आज भी जीवंत है उनकी विरासत
आज जब महेश्वर का किला चांदनी में नहाता है और मां नर्मदा की लहरें उसकी दीवारों से टकराती हैं, तो वह न केवल इतिहास का गवाह बनता है, बल्कि मां अहिल्या के करुणामय नेतृत्व और सकारात्मक ऊर्जा का संचार भी करता है। शायद यही कारण है कि 45 डिग्री तापमान में भी लोग इस तट पर आकर मानसिक शांति का अनुभव करते हैं।
अहिल्याबाई होल्कर का जीवन आज भी हमें सिखाता है कि एक मां, शासक, सुधारक और योद्धा में कोई भेद नहीं होता — सब एक ही रूप हैं जब उनमें सेवा, साहस और ममता समाहित हो।