आज जिस जाति को ‘चमार’ कहा जाता है, वह असल में चंवरवंश की क्षत्रिय जाति है, जिन्होंने क्रूर मुगलों के अत्याचार सहते हुए भी अपना धर्म नहीं त्यागा। इस बात का खुलासा डॉ. विजय सोनकर की पुस्तक “हिन्दू चर्ममारी जाति: एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास” में हुआ है।
डॉ. सोनकर बताते हैं कि विदेशी विद्वान कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” में चंवरवंश का विस्तृत वर्णन किया है। इसके अलावा, महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस वंश का उल्लेख मिलता है। डॉ. सोनकर के अनुसार, हिंदू वर्ण व्यवस्था को कठोर एवं भेदभावपूर्ण बनाने वाले स्वयं हिंदू नहीं, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी थे। जब भारत पर तुर्कियों का शासन था, तब इस वंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था और उनके प्रतापी राजा चंवर सेन थे। इस राजवंश के वैवाहिक सम्बन्ध बप्पा रावल के वंश से जुड़े थे। राणा सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने संत रविदास, जो कि चंवरवंश के थे, को मेवाड़ का राजगुरु नियुक्त किया था और वे नियमित रूप से चित्तौड़ के किले में प्रार्थना करते थे।
डॉ. सोनकर के अनुसार, प्राचीन काल में न तो ‘चमार’ शब्द प्रचलित था और न ही इस नाम की कोई जाति। ऋग्वेद में बुनकरों का उल्लेख तो मिलता है, पर उन्हें ‘चमार’ नहीं, बल्कि ‘तुतुवाय’ के नाम से संबोधित किया गया है। प्रथम बार ‘चमार’ शब्द का उपयोग सिकंदर लोदी ने किया था। उस समय हिंदू संत रविदास के चमत्कारों में बढ़ोतरी हुई, जिससे मुगल शासन चिंतित हो उठा। सिकंदर लोदी ने सदना कसाई को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा, यह जानते हुए कि यदि संत रविदास इस्लाम अपनाते हैं तो बड़ी संख्या में हिंदू भी इस ओर आकर्षित होंगे।
हालांकि, सदना कसाई शास्त्रार्थ में असमर्थ रहे और अंततः संत रविदास की गहन भक्ति से प्रेरित होकर उनका अनुयायी बन गए, अपना नाम बदलकर रामदास कर लिया। दोनों संत मिलकर हिंदू धर्म के प्रचार में जुट गए। इससे सिकंदर लोदी क्रोधित हो उठे और अपने अनुयायियों को अपमानित करने के लिए ‘चमार’ शब्द का प्रयोग करने लगे। संत रविदास को कारावास में डालकर उन्हें अपमानित करने के लिए त्वचा उखाड़ने, पीटने और अन्य अत्याचार किए गए। मुसलमान बनाने के लिए उन्हें शारीरिक कष्ट दिए गए, परन्तु संत रविदास ने दृढ़ता से अपने वैदिक धर्म पर अडिग रहते हुए कहा:
“वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान,
फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान।
वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार,
तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार॥”
इतनी कष्टसहनीय यातनाओं के बाद भी संत रविदास ने अपने अनुयायियों को विधर्मी होने से बचाया। शीघ्र ही चंवरवंश के वीरों ने दिल्ली पर घेराबंदी कर दी, जिसके परिणामस्वरूप सिकंदर लोदी को संत रविदास छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। संत रविदास का निधन चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, विक्रम संवत १५८४ को चित्तौड़ में हुआ। उनकी स्मृति आज भी हमारे बीच प्रेरणा का स्रोत है और उनके आदर्श आधुनिक समाज के लिए प्रासंगिक हैं।
हमें यह याद रखना चाहिए कि आज से छह सौ वर्ष पूर्व ‘चमार’ जाति का अस्तित्व नहीं था। इतने अत्याचारों के बावजूद इस वंश के हिंदुओं ने धर्म और राष्ट्र के हित के लिए अपने मूल्यों को नहीं छोड़ा। वर्तमान में हमारे समाज की कमजोरी यह है कि हम वामपंथियों, मुस्लिमों और अंग्रेजों के लेखन पर अंध विश्वास कर, उनके द्वारा प्रस्तुत मिथ्यों में फंस जाते हैं, जिससे आपसी संघर्ष बढ़ता है। हिंदू समाज को ऐसे वैमनस्यपूर्ण इतिहासकारों की धारणाओं से ऊपर उठकर सच्चाई को समझना होगा। सत्य यह है कि आज का हिंदू समाज इन चंवर वंश के वीरों के अदम्य बलिदान के कारण बचा है, जिन्होंने नीच समझे जाने वाले कर्म स्वीकार किए, परन्तु धर्म त्यागने को कभी तैयार नहीं हुए। वे इस्लाम अपनाने, मौत को गले लगाने या जनपद छोड़ने के विकल्प के सामने, उन कष्टों को चुनना पसंद किया जिन्हें अन्य लोग चुनने से कतराते थे। इन वीरों ने पद्दलित होने का विकल्प चुना, परन्तु विधर्मी होने से कतराए, और यही आज भी हिंदू धर्म का आधार बना हुआ है।