बलबीर पुंज : बीते दिनों नेता प्रतिपक्ष (लोकसभा) और कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी, अमेरिका में अपने विवादित वक्तव्यों के कारण चर्चा में रहे। इसमें उनका सबसे अधिक खतरनाक बयान सिखों को लेकर रहा। 10 सितंबर को वाशिंगटन में भारतीय प्रवासियों के समूह से मुखातिब होते हुए राहुल कहा, “लड़ाई इस बात की है कि एक सिख होने के नाते क्या उन्हें भारत में पगड़ी… कड़ा पहनने की अनुमति मिलेगी? सिख होने के नाते वे भारत में गुरुद्वारा जाजा सकते है? यह लड़ाई सिर्फ इनके लिए ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लिए है।” यह कोई पहली बार नहीं है। इससे पहले मार्च 2023 में अपनी यूनाइटेड किंगडम यात्रा के दौरान भी राहुल ने इसी प्रकार की बातें कही थी। राहुल की इन टिप्पणियों का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बेबुनियाद बयान दिया है। उनका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर भारत का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को खराब करना और देशविरोधी शक्तियों से अपने लिए समर्थन जुटाना है।
क्या स्वतंत्र भारत में सिखों को किसी प्रकार का मजहबी भेदभाव झेलना पड़ता है? देश की कुल आबादी में सिख लगभग दो प्रतिशत हैं और उन्हें देश के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में कई प्रमुख स्थान प्राप्त हैं। डॉ. मनमोहन सिंह के रूप में दो बार लगातार सिख प्रधानमंत्री (2004-2014) रहे हैं। वर्ष 1982-87 तक (दिवंगत) ज्ञानी जैल सिंह भी देश के राष्ट्रपति रहे। असंख्य सिखों ने देश की विभिन्न अदालतों के साथ चुनाव आयोग रूप संवैधानिक पद और सेना, व्यापार, प्रशासनिक और खेल आदि विभिन्न क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं और ऐसा आज भी है। देश को उनपर गर्व करता है। पंजाब से कहीं गुना अधिक गुरुद्वारे शेष भारत में है, जिनके प्रति हिंदुओं की भी स्वाभाविक श्रद्धा है।
दरअसल, राहुल गांधी देश में सिख उत्पीड़न के जिस दौर की बात कर रहे हैं, जिसमें सिखों का पगड़ी पहनना, लंबे केश रखना और उनका कड़ा तक धारण करना तक मुहाल हो गया था— वह असल में नवंबर 1984 का समय था। उसी वर्ष 31 अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा निर्मम हत्या करने के बाद प्रतिक्रियास्वरूप दिल्ली-एनसीआर और देश के कुछ क्षेत्रों में हजारों निरपराध सिखों को मौत के घाट (जीवित जलाने सहित) उतारा गया था। बकौल वरिष्ठ अधिवक्ता और लेखक हरविंदर सिंह फुल्का, तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और उनके प्रेस सचिव तरलोचन सिंह उन पहले प्रताड़ित सिखों में शामिल थे, जिनपर उग्र भीड़ ने जानलेवा हमला किया था।
वर्ष 1984 का सिख नरसंहार पूरी तरह प्रायोजित था, जिसे प्रत्यक्ष-परोक्ष तौर पर जायज ठहराते हुए राजीव गांधी ने कहा था, “…जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती थोड़ी हिलती है।” उस समय के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रचार-प्रसार सिख समुदाय के दानवीकरण पर ही आधारित था। स्वयं राहुल गांधी ने जनवरी 2014 को एक टीवी साक्षात्कार में 1984 के सिख नरसंहार में “कुछ कांग्रेसी लोगों के शामिल” होने की बात स्वीकारी थी। वही राहुल विदेश में जाकर विषवमन कर रहे हैं।
यह कहना मुश्किल है कि राहुल की हालिया गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियों से उनके राजनीतिक उद्देश्य कितनी पूर्ति होगी, परंतु दो बातें स्पष्ट है। पहला— उनके बयान का इस्तेमाल देशविरोधी शक्तियां, भारत की वैश्विक छवि को धूमिल करने के लिए करेंगी। दूसरा— इससे विदेश तक सीमित खालिस्तान आंदोलन को भी बल मिलेगा, जिसका देश के भीतर बहुत कम आधार है। जैसे ही राहुल का वक्तव्य सामने आया, वैसे ही अमेरिका-कनाडा स्थित खालिस्तानी चरमपंथी और भारत द्वारा घोषित आतंकवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने इसका समर्थन करते हुए अपनी मांगों को जायज ठहरा दिया।
यह अकाट्य सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू और सिख एक सिक्के के दो पहलु है। सिख गुरु परंपरा में प्रेम, भाईचारा, सेवा, न्याय, करुणा और मानवता का संदेश निहित है। जब मध्यकालीन भारत में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा धर्म पर संकट आया और उसपर अत्याचार हुआ, तब सिख गुरु परंपरा में शस्त्र भी उठाया गया। गुरु साहिब हरगोबिंद सिंहजी, गुरु तेग बहादुरजी, गुरु गोबिंद सिंहजी के साथ वीर बंदा सिंह बहादुर, महाराजा रणजीत सिंह, हरि सिंह नलवा आदि— इसके प्रमुख उदाहरण है। जिनकी रक्षा करते हुए गुरु तेग बहादुर साहिब ने सर्वोत्तम बलिदान दिया, वह पंजाब के नहीं, कश्मीर से थे, हिंदू थे। इस घटना का वर्णन ‘बचित्तर नाटक’ में श्री गुरु गोबिंद सिंहजी ने इस प्रकार किया था— “तिलक जंजू राखा प्रभ ताका… सीसु दीआ परु सी न उचरी॥ धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥” (अर्थात— हिंदुओं के तिलक और जनेऊ की रक्षा हेतु गुरु तेग बहादुरजी ने अपने शीश का परित्याग कर दिया, किंतु धर्म का त्याग नहीं किया।)
भारत में हिंदुओं और सिखों के बीच सदियों से नाखून-मांस का रिश्ता रहा है। जब अंग्रेज भारत आए और उन्होंने अपने राज को शाश्वत बनाए रखने के लिए भारतीय समाज में कमजोर कड़ियां ढूंढते हुए ‘बांटो और राज करो’ की विभाजनकारी नीति अपनाई, तब उन्होंने षड्यंत्र रचते हुए हिंदू-सिख बंधुत्व में भी दरार डालने का भरसक किया था। जब ब्रितानियों ने सर सैयद अहमद खां को सामने रखकर कालांतर में मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग को वामपंथियों के सहयोग से मजहब के नाम पर देश का बंटवारा करने के लिए प्रेरित किया, तब मैक्स ऑर्थर मैकॉलीफ की कुटिल योजनाओं को पानी फेरते हुए सिख समाज भारत के प्रति समर्पित रहा। परंतु पंजाब में संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए इंदिरा गांधी और संजय गांधी आदि ने वर्ष 1978 से उसी जहरीले मैकॉलीफ चिंतन को हवा दे दी, जिसने बाद में इंदिरा को ही लील लिया।
दुर्भाग्य से राहुल अपनी दादी इंदिरा गांधी, पिता राजीव गांधी और चाचा संजय गांधी के नक्शेकदम पर चलकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश कर रहे है। सत्ता की भूख में अंधे होकर इन्होंने ने जो आग लगाई थी, उसने पंजाब सहित शेष देश के कुछ भागों को झुलसा दिया था। पंजाबियों को चाहिए कि वे अंग्रेजों और उसके बाद स्वतंत्र भारत के स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बनाए नैरेटिव से गुमराह नहीं हो और सत्कारयोग सिख गुरुओं के दिखाए मार्ग पर चले। इसी में भारत, पंजाब और मानवता का कल्याण निहित है।