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उन्नत खेती का अविष्कारक – भारत / 1

admin by admin
February 23, 2025
in Agriculture, Article
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उन्नत खेती का अविष्कारक – भारत / 1
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प्रशांत पोळ : पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिम भाग मे उस देश का सबसे बडा प्रदेश है, बलुचिस्तान. 14 ऑगस्ट 1947 को जब पाकिस्तान का निर्माण हुआ, तब बलुचिस्तान, पाकिस्तान का हिस्सा नही था. वह एक स्वतंत्र राष्ट्र था. मार्च 1948 मे पाकिस्तानने इस प्रांत पर जबरदस्ती कब्जा किया. तब से पाकिस्तान के विरोध मे बलुचिस्तान मे निरंतर कुछ ना कुछ होता रहता है. आज के समय में बलुचिस्तान, पाकिस्तान का सबसे अधिक अशांत और विस्फोटक प्रांत है.

इस प्रांत में, सिंधू नदी की पश्चिम दिशा मे, बोलन पास के निकट, क्वेटा, कलात और सीबी इन शहरों के बीचमे, एक छोटासा गांव है – मेहरगढ. इस गांव में, सन 1974 मे, फ्रेंच खोजकर्ताओं का एक दल जा पहुंचा. उन्हे इस स्थान पर कुछ अति प्राचीन चीजे मिल सकती है, ऐसा लग रहा था. इसलिए उन्होने वहां उत्खनन का कार्य प्रारंभ किया.

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इस उत्खनन में उस फ्रेंच टीम को ऐतिहासिक खजाना मिला. उन्हे विश्व मे सबसे प्राचीन खेती करने के ठोस और जबरदस्त प्रमाण मिले. वह भी कितने पुराने? तो ईसा पूर्व 7000 वर्ष. अर्थात, आजसे 9000 वर्ष पूर्व, तत्कालीन अखंड भारत मे खेती होती थी, यह निर्णायक रूप से सिद्ध हुआ. उसी के साथ विश्व की सबसे प्राचीन और सबसे उन्नत खेती करने की परंपरा भारत मे थी, यह भी सिद्ध हुआ.

ऋग्वेद यह विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है. इस ऋग्वेद में, खेती के संदर्भ में अनेक सूक्त है. इस ग्रंथ के दुसरे मंडल में वर्णन किया है की, सर्वप्रथम ऋषी गृस्मद ने रुई (कपास) का बीज बोया, और उससे उगे पौधे से रुई निकाली.

ऋग्वेद के चौथे मंडल में, 57 वें सूक्त मे सातवा श्लोक है-

इंद्रः सीतां नि गृहणातु तां पूषानु यच्छतु
स नाः परिस्वती दुहामुत्तरा मुत्तरा समाम ll7ll

यहां ‘सीता’ यह शब्द ‘भूमि’ के लिये उपयोग मे लाया है. इंद्र यह शब्द वर्षा के लिए (पर्जन्य के लिए) है. इस श्लोक का भावार्थ है, ‘हे कृषक, हे किसान, खेती का काम करते समय इस क्षेत्र के विद्वजनोंका अनुकरण कीजिए और खेती की आय बढाईये.’

ऋग्वेद के चौथे मंडल के 57 वे मे सूक्त मे आठवा श्लोक है –
शुन्य नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं की नाशां अभि यन्तु वाहैः l
शुनं पर्जन्यो मधुना पयौभिः शुनांसीरा शुनमस्मासुं धत्तम् ll8ll

अर्थात, ‘कृषी कर्म (खेती) करने वाले व्यक्तिने अच्छी गुणवत्ता के हल से जमीन को जोतना चाहिये. बारिश के पानी से या भूमिगत पानी से जमीन का सिंचन करके किसान ने और (खेती अच्छी हुई और अच्छा राजस्व मिला इसलिये) राजाने सुखी होना चाहिये’.

ऋग्वेद के कम से कम 24 सुक्तों मे कृषी का वर्णन करने वाली ॠचाएं है. अथर्ववेद मे एक सुक्त है–

व्राहीमतं यव मत्त मथो, माषमथों विलम् l
एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय, दंतौ माहीसिष्टं पितरं मातरंच ll

इसमे जौ, तीली, चावल और दाल ये प्राचीन भारत के प्रमुख अनाज थे, यह स्पष्ट हो रहा है.

अथर्ववेद के अन्य सूक्तों मे खाद के प्रकार, जमीन के प्रकार आदि का वर्णन है.

ध्यान रहे, आज से कम से कम पांच – छह हजार वर्ष पहले, अपने देश मे व्यवस्थित और उन्नत किस्म की खेती होती थी. अकूत अनाज मिलता था. इसलिये देश मे समृद्धी थी, खुशहाली थी, संपन्नता थी. इसीके बल पर हम विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार करते थे और धन-संपत्ती भारत मे लाते थे.

विशेष बात यह है कि, दुनिया मे कही भी इस प्रकार की, वैज्ञानिक और शास्त्रीय आधार पर खेती करने की, इतनी प्राचीन जानकारी उपलब्ध नही है.

केवल ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद जैसे वैदिक साहित्य मे ही खेती से संबंधित ‘शास्त्र’ की जानकारी मिलती हैं, ऐसा नही है. इनके बाद मे उपलब्ध ग्रंथो मे भी खेती संबंधित जानकारी मिलती है.

भारतीय किसान तंत्रशुद्ध पद्धतीसे खेती करते थे, यह जानकारी अगले सैकडो वर्षो मे ऐसेही मिलती गई है और उसमे भी अनेक सुधार हुए है.

इन सब ग्रंथों मे हल के प्रकार, हल का फाल से होने वाला कोण, मिट्टी के प्रकार, कौनसी मिट्टी मे कौनसा अनाज बो सकते है, पर्जन्यवृष्टी (वर्षा / बारिश) और खेती का अनन्य साधारण आपसी संबंध, पर्जन्यवृष्टी और नक्षत्र, किस प्रकार की बारिश में किस प्रकार का अनाज लेना है, खेती के लिए आवश्यक गोवंश कैसे संभालना चाहिये, खेती के लिये हल जोतने वाले बैल कैसे होने चाहिये, उन्हे कैसे संजोना चाहिये, संम्हालना चाहिये….

या सब पढकर हम आश्चर्यचकित हो जाते है..!

कमसे कम, पाच – छह हजार वर्ष पहले की यह सब लिखित जानकारी है. भारत मे उन्नत और प्रगत खेती थी, और शायद उससे भी और पहले, कई हजार वर्षों से यह चलती आ रही होगी.

यह सब अद्भुत है. हमारे पुरखो ने कृषी के संबंध में जो ज्ञान प्राप्त किया, वैसा विश्व मे कही भी उपलब्ध नही है. उस ज्ञान से, वे इतने अनाज का उत्पादन करते थे, जिससे देश मे संपन्नता आई थी.

——– ——– ——

पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक जिला हैं, ‘एटा’ नाम का. गंगा जमुना के दोआब के बीचो बिच स्थित. अर्थात सभी प्रकार से उपजाऊ प्रदेश. पेशवाओं के जमाने मे इस प्रदेश को ‘अंतर्वेद’ नाम से जाना जाता था. उपजाऊ क्षेत्र होने के कारण, एटा जिले मे प्राचीन खेती के प्रमाण मिले है.

यमुना का दुसरा नाम है कालिंदी. इसी नाम से यह नदी एटा जिले से बहती है. श्रीकृष्ण भगवान ने अपने बाल रूप में इसी कालिंदी के गहरे पानी मे कालिया नाग पर नृत्य किया था. इस कालिंदी नदी के तट पर, जखेडा नाम का एक गाव है. यहां जो उत्खनन हुआ, उसमे हल के दो लोहे के हिस्से मिले. यह छब्बीस सौ वर्ष प्राचीन है.

इसे जखेडा से 16 किलोमीटर दूरी पर, एटा जिले मे ही ‘अतरंगी खेडा’ नाम का छोटासा गांव है. अलेक्झांडर कनिंगहम नाम के ब्रिटिश पुरातत्व विशेषज्ञ ने सन 1871 मे यहां उत्खनन किया. इस उत्खनन मे उसे भारत मे प्राचीन खेती के अनेक प्रमाण मिले. कृषी हेतू बीज के लिए रखे गये चावल, गेंहू , उस जमाने के खेती के औजार, हल ऐसा बहुत कुछ… यह सब चीजे कार्बन डेटिंग के अनुसार, ईसा पूर्व बारह सौ वर्ष की है. इसका अर्थ, आज से 3200 वर्ष पहले अपने देश मे, उस जमाने की अपेक्षा कही अधिक आधुनिक पद्धती से खेती हो रही थी. इसके ये सब प्रमाण है.

शुल्बसूत्र लिखने वाले ‘बोधायन’, उनतीस सौ वर्ष पूर्व के है. उन्होने ‘कुदाली’ का उपयोग करके खेती करने वालों के लिए, ‘कौद्दालिक’ इस शब्द का प्रयोग किया है. प्रख्यात व्याकरणकार ‘पाणिनी’ का कार्यकाल ईसा पूर्व पाचवी सदी का है. अर्थात, ढाई हजार वर्ष पहले का. उन्होंने उनके ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ मे हल और लोहे के फाल के लिए ‘अमी विकार कुशी’ इस शब्द का उपयोग किया है.

ईसा पूर्व तिसरी सदी मे, चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री चाणक्य ने, ‘कौटिल्य’ नाम से ‘अर्थशास्त्र’ यह प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा. अर्थतंत्र को गतिमानता देने के लिए खेती यह आवश्यक घटक / हिस्सा है, ऐसा प्रतिपादित करते हुए उन्होने इस ग्रंथ मे खेती की महत्ता का अनेकोबार उल्लेख किया है. इनमे से 2 से 14 अध्यायों के शीर्षकही ‘सीता अध्यक्ष’ है. भूमी के लिये संस्कृत में ‘सीता’ शब्द का उपयोग किया जाता है, यह हमने देखा हैं. अर्थात, यहां कौटिल्य को ‘कृषीशास्त्र के प्रमुख’ यह अर्थ अपेक्षित है. खेती और वर्षा का अनन्य साधारण संबंध होने के कारण, ‘वर्षा और वर्षा का भविष्य’ इस पर विस्तार से चर्चा की है. अच्छा बीज कैसे तयार किया जाता है, उसे कैसे जतन किया जाता है, अलग – अलग प्रकार के बीज कैसे संकलित और संग्रहित किये जाते है.. इन सब का शास्त्रशुद्ध ज्ञान भी इसी ग्रंथ मे दिया है. सरकारने कृषी उत्पादन बढाने के लिए क्या, क्या योजनाये बनानी चाहिये, इसका भी विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ मे किया है.

कौटिल्यने इस ग्रंथ के छठवे अध्यायमे लिखा है कि, ‘कृषी योग्य जमीन, खदानों से अच्छी होती है. क्योंकि खदानों के कारण केवल राजकोष मे वृद्धी होती है, परंतु खेती के कारण राजकोष और भांडार, दोनों मे वृध्दी होती है.’

कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ इस ग्रंथ मे तीन प्रकार के उर्वरकोंका (खाद का) उल्लेख किया है –

  1. गोस्थी
  2. गोश कृद (गाय का गोबर)
  3. अशुष्क कटू मत्स्य

शाखिनां गर्तदाहो गोस्थीशकृदिभः काले दौहदंच l
प्रुरुढांश्चाशुष्ककटू मत्स्यांश्चस्नुहि क्षीरेण पायतेत ll
(अर्थशास्त्र / 2.24 / 34)

दो – ढाई हजार वर्ष पहले, अच्छी खेती का कितना गंभीरता से और गहराई से हमारे पूर्वजों ने विचार किया था, यह अर्थशास्त्र ग्रंथ पढने से समझ मे आता है.

कौटिल्यने ‘सीताध्यक्ष’ के प्रमुख कर्तव्यों मे, अच्छे बीजों का जतन और संवर्धन प्रमुखता से बताया है. कौटिल्यने तीन प्रकार के जमीन का वर्णन किया है.

  1. कृष्ट भूमी (जो जोती हुई है)
  2. अकृष्ट भूमी (जो जोती नही हैं, पर जोती जा सकती है)
  3. स्थलभूमी (बंजर जमीन)

खेती के लिए जो जमीन उपयुक्त नही है, वह जमीन गोचर भूमी (चारागार जमीन) अर्थात, गोवंश के चारे के लिए विकसित की जाती थी. कौटिल्यने इस जमीन को ‘अदेवमातृक भूमी’ कहा है.

कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे, और (आगे चलकर लिखे गये) वराह मिहिर के ‘बृहत्संहिता’ मे, अच्छे कृषी के लिए सिंचन की आवश्यकता और सिंचन के प्रकार,
विस्तार से बताये गये है. कौटिल्यने चार प्रकार के सिंचन पद्धती का वर्णन किया है.

  1. हाथों की सहायता से सिंचन
  2. कंधों पर पानी लाकर किया हुआ सिंचन
  3. यंत्र द्वारा सिंचन
  4. तालाब के पानी से किया हुआ सिंचन

प्रसिद्ध इतिहासकार सत्यकेतू विद्यालंकार ने, उनके ग्रंथ ‘प्राचीन भारत – प्रारंभ से 1200 इ.स. तक’ मे कौटिल्य के सिंचन पद्धती का और विस्तार किया है. इसमे उन्होने पांचवी पद्धती जोड दी है – बांध का निर्माण करके, उससे नहर निकाल के, उसके द्वारा सिंचन करना, यह पांचवी पद्धती है. यंत्र द्वारा किये जाने वाले सिंचन मे सत्यकेतू विद्यालंकार के अनुसार, पवनचक्की से पानी लेकर सिंचन किया जाता था. इसके अलावा सिंचन के लिए मोठ (चरसा / पुर) का भी उपयोग होता था.

छठवी सदी मे, उज्जैन के वराहमिहीरने पर्जन्यवृष्टी के संदर्भ मे, अर्थात, वर्षा के ‘पॅटर्न’ के बारे मे बहुत कुछ लिखा है. ‘बृहत्संहिता’ इस ग्रंथ के 21, 22 और 23 अध्यायों मे उन्होने अंतरिक्ष से आनेवाला जल, अर्थात पर्जन्य के संदर्भ में विस्तार से लिखा है. बारिश और खेती का अनोन्य संबंध भी उन्होने रेखांकित किया है. ‘अच्छी वर्षा हुई, तो अच्छा अनाज आयेगा’ की अपेक्षा, ‘वर्षा का अनुमान लगाके, उसके अनुसार अगर बीज बोयेंगे, और अनाज निकालेंगे, तो अधिक उत्पादन होगा’, यह उनका सिद्धांत था. और इसिलिये ‘बृहत्संहिता’ ग्रंथ मे बारिश के भविष्यवाणी से संबंधित अनेक संकेत दिये है.
(क्रमशः)

  • प्रशांत पोळ
    (आगामी प्रकाशित ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 2’ पुस्तक के अंश)

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