प्रोफेसर (डॉ.) एस.के. सिंह : यह समय (अप्रैल-मई) पपीता की रोपाई के लिए अत्यंत उपयुक्त माना जाता है। इस समय तापमान, नमी और मिट्टी की दशाएं पपीता की सफल खेती के लिए अनुकूल होती हैं। पपीता (वैज्ञानिक नाम Carica papaya) एक अल्पकालिक, बहुवर्षीय फलवाली फसल है, जिसकी खेती विश्व के अधिकांश उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है। भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया, नाइजीरिया और मैक्सिको इस फल के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में पपीते की खेती व्यापक रूप से की जाती है और इसकी मांग वर्ष भर बनी रहती है।
पपीते की जैविक विशेषताएँ और किस्में
पपीते के पौधों में तीन प्रकार की लैंगिक अभिव्यक्तियाँ पाई जाती हैं—नर, मादा और उभयलिंगी (हेर्मैफ्रोडाइट)। नर पौधे केवल पराग उत्पादन करते हैं और इन पर फल नहीं आते। मादा पौधों पर फल तो आते हैं, लेकिन इसके लिए पराग की आवश्यकता होती है। उभयलिंगी पौधे फल उत्पादन में अत्यधिक सक्षम होते हैं, क्योंकि इनमें स्व-परागण की क्षमता होती है। अधिकांश वाणिज्यिक किस्में, जैसे ‘रेड लेडी’, उभयलिंगी प्रकृति की होती हैं, जिससे इनकी खेती अधिक लाभकारी सिद्ध होती है। कुछ किसान ‘सोलो’ टाइप की किस्में भी लगाते हैं, जिनमें नर और मादा पुष्प अलग-अलग पौधों पर होते हैं।
जलवायु और मिट्टी की आवश्यकताएं
पपीता की सफल खेती के लिए 21 से 36 डिग्री सेल्सियस तापमान को आदर्श माना जाता है। अत्यधिक ठंड इसके लिए हानिकारक होती है और इससे पत्तियाँ झुलस सकती हैं या पौधा मर भी सकता है। इस फसल को हल्की दोमट या बलुई दोमट मिट्टी में अच्छा विकास मिलता है, जिसमें जल निकासी की उत्तम व्यवस्था हो। मिट्टी का pH 6.0 से 7.0 के बीच सबसे उपयुक्त होता है। पपीते की जड़ों को जल जमाव से अत्यधिक नुकसान होता है, अतः ऊँची भूमि का चयन करना चाहिए जहाँ वर्षा के बाद जल शीघ्र निकल सके।
नर्सरी और पौध तैयार करना
पपीते की पौध तैयार करने के लिए दो विधियाँ प्रचलित हैं—उठा हुआ बेड तथा पॉलीथीन बैग। नर्सरी मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरी बनाकर सड़ी हुई गोबर की खाद मिलाई जाती है और बीजों को उचित दूरी पर बोया जाता है। पॉलीथिन बैग में बोई गई पौधों को उखाड़ना और रोपण करना अधिक आसान होता है। नर्सरी को प्रतिकूल पर्यावरण एवं कीट-रोग से बचाने के लिए लो-कॉस्ट पॉलीटनेल संरचना में उगाना लाभदायक होता है। 30 से 45 दिन की पौधें रोपण के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं।
भूमि की तैयारी और रोपण विधि
खेत की गहरी जुताई कर के 1 फीट × 1 फीट × 1 फीट आकार के गड्ढे बनाए जाते हैं और इन्हें कम से कम 15 दिन तक खुला छोड़कर धूप लगने दी जाती है। प्रत्येक गड्ढे में 5 ग्राम कार्बोफ्यूरान और 25-30 ग्राम डीएपी मिलाकर मिट्टी से आधा भर देना चाहिए। पौधे को मिट्टी सहित गड्ढे के बीच में रखकर शेष मिट्टी से भर दें और हल्की सिंचाई करें। यदि डीएपी पूर्व में नहीं डाला गया हो तो रोपण के समय कोई रासायनिक खाद नहीं डालनी चाहिए।
दूरी और पोषण प्रबंधन
पौधे से पौधे और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.8 मीटर रखने से बेहतर वृद्धि और उत्पादन प्राप्त होता है। संतुलित उर्वरक उपयोग अत्यंत आवश्यक है। प्रति पौधा वार्षिक आधार पर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, और पोटाश प्रत्येक 200-250 ग्राम की दर से देना चाहिए। यह उर्वरक दो-दो माह के अंतराल पर चार बार या तीन-तीन माह पर तीन बार दिया जा सकता है। साथ ही, सड़ी हुई गोबर की खाद (25-30 किग्रा), नीम केक, जैव उर्वरक और वर्मीकम्पोस्ट का संयोजन, रोग प्रतिरोधक क्षमता और उत्पादन दोनों को बढ़ाता है।
रोग प्रबंधन एवं उन्नत तकनीकें
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा एवं ICAR-AICRP on Fruits द्वारा विकसित तकनीकों के अनुसार, पपीते को पपाया रिंग स्पॉट वायरस से बचाने के लिए 2% नीम का तेल जिसमें 0.5 मि.ली./लीटर स्टीकर मिलाया गया हो, का छिड़काव एक-एक महीने के अंतर पर आठवें महीने तक करना चाहिए। साथ ही, उर्वरक स्प्रे के रूप में यूरिया, जिंक सल्फेट और बोरान—प्रत्येक 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर, एक एक महीने के नियमित अंतराल पर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए।
बिहार में पपीते की सबसे घातक बीमारी जड़ गलन (Root rot) का प्रबंधन अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए हेक्साकोनाजोल @2 मि.ली./लीटर पानी की दर से घोल बनाकर, एक-एक माह के अंतर पर पौधे के मूल क्षेत्र की मिट्टी को भिगोते रहें। प्रत्येक बड़े पौधे को इस उपचार हेतु 5-6 लीटर घोल की आवश्यकता होती है।
सारांश
पपीते की खेती एक अत्यंत लाभकारी व्यवसायिक अवसर बन चुका है, बशर्ते इसे वैज्ञानिक तकनीकों और सावधानियों के साथ किया जाए। अप्रैल-मई का समय रोपण के लिए आदर्श है। यदि किसान उचित किस्म, समय, उर्वरक एवं रोग प्रबंधन अपनाएँ, तो यह फसल उन्हें वर्ष भर आर्थिक लाभ देने में सक्षम है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा द्वारा विकसित अनुशंसाओं का पालन कर किसान पपीते की खेती को नई ऊँचाइयों पर ले जा सकते हैं।
(प्रोफेसर (डॉ.) एस.के. सिंह, विभागाध्यक्ष, पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं नेमेटोलॉजी, प्रधान, केला अनुसंधान केंद्र, गोरौल, हाजीपुर , पूर्व प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना, डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार)