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दुष्प्रचार के शिकार वीर सावरकर

admin by admin
May 1, 2025
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दुष्प्रचार के शिकार वीर सावरकर
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बलबीर पुंज : पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव चरम पर पहुंचने के कारण एक महत्वपूर्ण खबर दबकर रह गई। बीते 25 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस के शीर्ष नेता और वर्तमान लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी को स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर पर अमर्यादित टिप्पणी करने को लेकर आईना दिखा दिया। यह ठीक है कि न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायाधीश मनमोहन की खंडपीठ ने राहुल पर आपराधिक कार्यवाही पर रोक लगा दी, परंतु उन्होंने सख्त लहजे में आगाह करते हुए कहा कि अगर राहुल ने फिर इस तरह का बयान दिया, तो वह इसका स्वतः संज्ञान लेंगे।

मामला नवंबर 2022 से जुड़ा है, जिसमें राहुल ने अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान वीर सावरकर को अंग्रेजों का ‘एजेंट’ होने का आरोप लगाया था। इस इल्ज़ाम को साबित करने के लिए उन्होंने सावरकर द्वारा लेखबद्ध एक चिट्ठी पेश की, जिसमें आखिर में लिखा था— “…मैं आपका बहुत आज्ञाकारी सेवक बना रहूंगा।” इसे आधार बनाकर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया। क्या वाकई ऐसा है? क्या ये उस वक्त के आधिकारिक पत्राचारों में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाला एक पारंपरिक अभिवादन नहीं था? क्या इस आधार पर किसी को गद्दार या देशद्रोही कहना उचित है?

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मामले पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीश दत्ता ने राहुल गांधी के वकील और कांग्रेस के राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी से पूछा, “क्या आपके मुवक्किल को पता है कि महात्मा गांधी ने भी वॉयसराय को संबोधित करते हुए ‘आपका वफादार सेवक’ शब्द का इस्तेमाल किया था? क्या आपके मुवक्किल को पता है कि उनकी दादी (इंदिरा गांधी) ने, जब वह प्रधानमंत्री थीं, तब भी उस सज्जन (सावरकर) स्वतंत्रता सेनानी की प्रशंसा करते हुए एक पत्र भेजा था?” न्यायाधीश दत्ता ने आगे कहा, “कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी ब्रिटिश काल में मुख्य न्यायाधीश को ‘आपका सेवक’ कहकर संबोधित करते थे…।” खंडपीठ के अनुसार, “स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की आजादी के लिए अपार बलिदान दिया हैं। उनके योगदान को कमतर आंकने या गलत तरीके से पेश करने वाले बयानों से समाज में गलत संदेश जाता है। राहुल गांधी जैसे जिम्मेदार नेता को अपने शब्दों का चयन सोच-समझकर करना चाहिए।”

यहां अदालत गांधीजी के जिन पत्रों का उल्लेख कर रही है, उनमें से एक उन्होंने 22 जून 1920 को वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को लिखा था। इसमें उन्होंने स्वयं को “ब्रिटिश साम्राज्य का वफादार शुभचिंतक” कहा था। खिलाफत आंदोलन के दौरान भी उन्होंने अपने पत्र में “ब्रिटिश हुकूमत के प्रति वफादारी” का उल्लेख किया था। यह केवल गांधीजी या वीर सावरकर तक सीमित नहीं है। संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने भी 1930 से 1941 के बीच बॉम्बे के तत्कालीन गवर्नर को लिखे पत्रों के आखिर में ऐसे ही शब्दों का उपयोग किया था। इस प्रकार के ढेरों अकाट्य प्रमाण है। फिर सवाल उठता है— क्या अपने पत्रों के अंत की इस प्रकार भाषा लिखने पर आज़ादी की लड़ाई में गांधीजी और डॉ.अंबेडकर की भूमिका पर संदेह किया जा सकता है?

सच तो यह है कि गांधीजी, पं.नेहरू, सरदार पटेल, नेताजी बोस, वीर सावरकर, डॉ. बलिराम केशव हेडगेवार, भगत सिंह सरीखे तमाम क्रांतिकारी अथक परिश्रम और त्याग करके ब्रितानी राज से भारत को मुक्त कराने के लिए संघर्ष करते हुए तब कठिनाइयां झेल रहे थे। ये सभी महान स्वतंत्रता सेनानी थे, लेकिन भगवान नहीं थे और न ही एक जैसे थे। उनके विचार, नजरिए और आज़ादी पाने के तरीके अलग-अलग रहे। कई बार उन्होंने हालात का गलत अंदाज़ा लगाया। जब हम इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं, तो हमें उस समय की स्थिति और परिदृश्य का भी संज्ञान लेना चाहिए।

बहुत से समकालीन सावरकर से अलग विचार रखते थे। लेकिन वे उनके त्याग, समर्पण और देशप्रेम के प्रशंसक भी थे। 1927 में अंबेडकर ने बॉम्बे काउंसिल में एक प्रस्ताव रखा, जिसमें सावरकर की रिहाई की मांग की गई। ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ अखबार ने सावरकर की रिहाई का इस्तकबाल करते हुए लिखा था— “सावरकर आधुनिक पीढ़ी के लिए लगभग एक दंतकथा की भांति हैं। उनका जीवन एक रोमांचक कथा के समान प्रतीत होता है… भारत में ऐसा कोई सच्चा राष्ट्रवादी नहीं होगा, जिसे आज प्रसन्नता न हो।” रिहाई के बाद सावरकर ने रत्नागिरी में एक कांग्रेस कार्यक्रम में अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया। कांग्रेसी इकाई सहित कई संगठनों ने सावरकर का स्वागत किया। उन्हें लेकर तब आज़ाद मैदान से गिरगांव तक एक विशाल जुलूस निकाला गया। मानवेंद्रनाथ राय, जो उस समय युवा कांग्रेसी थे और बाद में एक प्रमुख कम्युनिस्ट विचारक बने— वे भी विद्यालय जीवन से सावरकर को नायक मानते रहे थे।

जब 1966 में वीर सावरकर का निधन हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें “साहस और देशभक्ति का पर्याय” बताया। यही नहीं, 30 मई 1980 को वीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के सचिव पंडित बाखले को एक पत्र लेखते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लिखा था— “वीर सावरकर की ब्रिटिश सरकार के प्रति साहसिक अवज्ञा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखती है। इस महान भारतीय पुत्र की जन्म शताब्दी समारोह की सफलता की मैं कामना करती हूं।”

सावरकर अत्यधिक यथार्थवादी थे और गांधीजी-पं.नेहरू की भांति हिंदू-मुस्लिम एकता की कोई आदर्शवादी कल्पना नहीं रखते थे। वे अपने समय से आगे थे और समझ चुके थे कि मुस्लिम लीग, वामपंथी और अंग्रेज का गुट मिलकर देश को मजहबी बुनियाद पर तोड़ने की साजिश कर रहा था। कांग्रेस तब हिंदू-मुस्लिम भाईचारे में भरोसा रखती थी। परंतु सावरकर ‘अखंड भारत’ के समर्थक थे और हिंदुओं को मजहबी दंगों और तक्सीम के लिए तैयार कर रहे थे। डॉ.अंबेडकर भी उन चंद गैर-मुस्लिम नेताओं में थे, जिन्होंने इस्लाम के नाम पर भारत के विभाजन की अनिवार्यता को पहले ही भांप लिया था।

राहुल रूपी स्वयंभू सेकुलरवादियों का राजनीतिक नैरेटिव, जिसमें वे भाजपा-संघ की मुखर आलोचना करते हैं— तब उनकी भाषा वामपंथियों की तरह हो जाती है। सावरकर पर जो आरोप लगाए जाते हैं, वो असल में वामपंथी नजरिए से पैदा हुए हैं, ना कि उस कांग्रेस से, जो आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रही थी।

स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक है।

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