वर्तमान सामाजिक और धार्मिक परिदृश्य को लेकर कई विशेषज्ञों और चिंतकों ने गहरी चिंता व्यक्त की है। उनके अनुसार, हिन्दू समाज धार्मिक दृष्टिकोण से अपनी पहचान और अस्तित्व को खोता जा रहा है, और इसका सीधा संबंध समाज की बदलती जीवनशैली और जनसांख्यिकीय व्यवहार से है।
विशेषज्ञों का कहना है कि आज हिन्दू समाज में पारिवारिक विस्तार और संतानों की संख्या को लेकर जो प्रवृत्तियाँ देखने को मिल रही हैं, वह समाज के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी हैं। महिलाएँ फिगर मेंटेन रखने और आर्थिक सुरक्षा की चाह में मातृत्व को टाल रही हैं, वहीं पुरुष भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत में पारिवारिक उत्तरदायित्वों से बच रहे हैं। फलस्वरूप, कई दंपत्ति या तो संतानोत्पत्ति से पूरी तरह परहेज कर रहे हैं या फिर वृद्धावस्था की सेवा हेतु मात्र एक संतान तक सीमित रह गए हैं, वह भी तब जब आयु 35 से 40 वर्ष के बीच पहुँच जाती है।
इसके विपरीत, मुस्लिम समाज में युवा अवस्था में ही परिवार विस्तार की परंपरा आज भी कायम है, जिसके कारण उनकी जनसंख्या में तीव्र वृद्धि देखी जा रही है। कई रिपोर्टों में यह अनुमान जताया गया है कि आने वाले दशकों में भारत विश्व का सबसे बड़ा इस्लामिक आबादी वाला देश बन सकता है।
विशेषज्ञों ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि हिन्दू समाज ने समय रहते जनसंख्या संतुलन और धार्मिक अस्मिता की रक्षा के लिए ठोस कदम नहीं उठाए, तो भारत का भविष्य बांग्लादेश जैसे उदाहरणों से अलग नहीं होगा, जहाँ बहुसंख्यक हिन्दू समाज कुछ ही दशकों में अल्पसंख्यक बन चुका है।
जनसंख्या असंतुलन को लेकर समाज में व्यापक संवाद और रणनीतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता बताई जा रही है। “जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” का सिद्धांत जिस तरह से इस्लामिक समाज में साकार हो रहा है, उससे हिन्दू समाज को भी सीख लेने की आवश्यकता है।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि हिन्दू दंपत्तियों को कम से कम चार संतानें उत्पन्न करनी चाहिए ताकि भविष्य में सामाजिक सुरक्षा, सांस्कृतिक निरंतरता और राष्ट्रीय संतुलन बनाए रखा जा सके। अन्यथा यह मौन आत्मघात की ओर बढ़ते कदम माने जाएंगे।


















