आंजनेय तिवारी : जालंधर के पास फिल्लौर में 30 सितंबर, 1837 को जन्मे पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ने 13 अप्रैल, 1865 को प्रसिद्ध आरती “ओम जय जगदीश हरे” की रचना की। उनकी समाज सुधार की पहल और मतांतरण के खिलाफ लहर ने पंजाब में सनातन धर्म की रक्षा की।
जब इसाई मिशनरियों ने धर्म परिवर्तन का प्रयास किया, तब पंडित जी ने तर्क और विद्या के माध्यम से इसे रोकने की कोशिश की। महाराजा कपूरथला रणधीर सिंह को भी अपने धर्म पर कायम रखने के लिए प्रेरित किया। पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ने पंजाब में मतांतरण की लहर को रोका, संस्कृति का किया संरक्षण ।
पंजाब के पहले सनातन धर्म प्रचारक की तर्कशक्ति के आगे महाराजा कपूरथला झुक गए। उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला और सिख धर्म में ही रहे। इसके बाद महाराजा ने पंडित जी को कपूरथला से फिल्लौर हाथी पर बिठाकर भेजा।
पंजाब में जब इसाई मिशनरियों ने सामुदायिक सौहार्द को बाधित करने की कोशिश की, तब पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ने उनके खिलाफ एक सशक्त अभियान चलाया। इस प्रयास के तहत उन्होंने रामकथा, महाभारत और उपनिषदों के उपदेश घर-घर पहुंचाए, जिससे पंजाबी समाज अपनी समृद्ध विरासत से पुनः जुड़ सका। उनके इस ऐतिहासिक कार्य ने मतांतरण की लहर को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, उन्होंने अपनी तर्कशक्ति का उपयोग करते हुए महाराजा कपूरथला रणधीर सिंह को भी धर्म परिवर्तन से रोक दिया, जबकि उस समय महाराजा पर मिशनरियों का दबाव था।
पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी की “ओम जय जगदीश हरे” आरती ने भारतीय संस्कृति को जोड़ा
पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ने 13 अप्रैल, 1865 को प्रसिद्ध आरती “ओम जय जगदीश हरे” की रचना की, जिसने भारतीय पुरातन सनातन धर्म परंपरा पर गहरा प्रभाव डाला। उस समय विभिन्न मंदिरों के बीच आरती को लेकर मनमुटाव था, लेकिन इस आरती ने उत्तर भारत के मंदिरों को आपस में जोड़ने का काम किया।
पंडित फिल्लौरी ने जालंधर में अपने हारमोनियम पर इस आरती की धुन तैयार की, और पहली बार इसी धुन पर आरती का गायन किया। आज तक इसी धुन का प्रयोग विभिन्न संगीतकार करते हैं, जिससे यह आरती भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है। पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी की यह रचना आज भी श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक बनी हुई है।
पंडित फिल्लौरी ने न केवल अपने धर्म का प्रचार किया, बल्कि सांस्कृतिक एकता को भी सुदृढ़ किया, जिससे पंजाब में सनातन धर्म की जड़ें और भी मजबूत हुईं। इसके अलावा, उन्होंने “भाग्यवती” उपन्यास लिखकर विधवा विवाह की वकालत की और बाल विवाह का विरोध किया। पंडित फिल्लौरी की रचनाएँ आज भी समाज में महत्वपूर्ण हैं और उनकी विरासत को समझने की आवश्यकता है।