कुरुक्षेत्र, 12 अक्टूबर। पंचनद शोध संस्थान के कुरुक्षेत्र नगर अध्ययन केंद्र और संस्कृति शिक्षा संस्थान, कुरुक्षेत्र के संयुक्त तत्वावधान में स्थानीय संस्कृति भवन में ‘जनजातीय समाज और लद्दाख प्रकरण’ विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया।
गोष्ठी के मुख्य वक्ता सुप्रसिद्ध स्तंभ लेखक श्री विकास सारस्वत ने लद्दाख प्रकरण को अंग्रेजी शासन की जनजातीय समाज को मुख्यधारा से पृथक रखने की नीति का हिस्सा बताया। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन ने नृवंशविज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग कर जनजातीय समाज को अलग-थलग करने के लिए एक बौद्धिक षड्यंत्र रचा। जे एच हटन, आर्चर और जे पी मिल्स जैसे विचारकों के माध्यम से “वर्जित क्षेत्र”, “आंशिक वर्जित क्षेत्र”, “इनर लाइन परमिट” जैसे प्रावधान लागू किए गए, जिन्हें बाद में वॉरियर एल्विन जैसे विशेषज्ञों द्वारा संस्थागत रूप दिया गया।
श्री सारस्वत ने संविधान सभा की बहसों का उल्लेख करते हुए बताया कि किस प्रकार कुछ सदस्यों ने पाँचवीं और छठी अनुसूची जैसे प्रावधानों के भविष्य में होने वाले दुष्परिणामों की चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा कि आज वह चेतावनियाँ अक्षरशः सत्य सिद्ध हो रही हैं, क्योंकि ये क्षेत्र वामपंथियों और मिशनरियों के लिए खुला मैदान बन गए हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर स्थानीय और बाहरी नागरिकों के बीच जो कृत्रिम दीवारें खड़ी की गई हैं, वे राष्ट्रीय एकता को बाधित कर रही हैं। पर्यावरण के प्रावधान बिना किसी भेदभाव के लागू किए जा सकते हैं, किंतु इसके लिए नागरिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए।
श्री सारस्वत ने जोर देकर कहा कि जिन समुदायों को हम आज “जनजाति” कहते हैं, वे भी समय के साथ मुख्य समाज से जुड़ते हैं, और उनके विकास की स्वाभाविक गति को कृत्रिम नीतियों द्वारा बाधित करना न तो उनके हित में है, न ही राष्ट्र के लिए लाभकारी।
गोष्ठी में करीब 70 प्रबुद्धजन सम्मिलित हुए, जिनमें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और NIT के वरिष्ठ प्रोफेसर, विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य, शिक्षा विभाग के अधिकारी, अधिवक्ता व शिक्षाविद शामिल थे।
गोष्ठी का संचालन अध्ययन केंद्र के संयोजक डॉ. सुमंत गोयल ने किया। विषय की प्रस्तावना पंचनद शोध संस्थान के उपाध्यक्ष डॉ. ऋषि गोयल ने रखी तथा आभार संस्कृति शिक्षा संस्थान के प्रबंधक श्री सुधीर कुमार ने व्यक्त किया।
इस अवसर पर प्रतिभागियों ने विषय पर गहन विचार-विमर्श किया और वर्तमान नीतियों की पुनर्समीक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।



















